________________ मेरी बात सन् 19 य आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी का संघ सहित सनावद आगमन हुआ। आगमन के बाद ही माताजी की ज्ञान गंगा प्रवाहित होने लगी। शिष्यों का शिक्षण एवं नगर के आबाल वृद्ध सभी के लिए शिविर की कक्षाएँ चलने लगीं। साथ ही साथ नूतन स्तुतियों का सृजन भी हो रहा था। ____ जब शिक्षण चलता तो मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता। मैं पढ़ने से बहुत मना भी करता, किन्तु माताजी सदैव एक ही सूत्र कह देती “पठितत्वं खलु पठितव्यं अग्रे अग्रे स्पष्टं भविष्यति” / मैं भी माताजी की आज्ञा को शिरोधार्य करके पढ़ता चला गया। ____ मुझ जैसे शिष्यों पर अनुकम्पा करके माताजी ने कई ग्रन्थों का हिन्दी टीकानुवाद करना प्रारम्भ करके भावी पीढ़ी के लिए. ज्ञान अर्जन का मार्ग सुलभ कर दिया, उन्हीं में से एक यह है “कातन्त्रव्याकरण" / पूज्य माताजी के असीम ज्ञान उपलब्धि का कोई मूलभूत बीज है तो कातन्त्र व्याकरण ही है। जिस कातन्त्र व्याकरण को अन्य विद्यार्थी दो वर्ष में पढ़ते हैं उसे पूज्य माताजी ने सन् 1954 में जयपुर में केवल दो माह में कंठस्थ कर लिया। व्याकरण के बाद छंद, अलंकार आदि का भी ज्ञान शिष्यों को पढ़ाकर अर्जित कर लिया। आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज ने बताया कि जब माताजी को कातंत्र व्याकरण पढ़ने की भख जाग्रत हुई तब अनेक पंडितों को क्रम से पढ़ाने के लिए बुलाया गया, किन्तु वे अगले दिन पढ़ाने आने के लिए इसलिए मना कर जाते कि जितनी शीघ्रता से ये पढ़ना चाहती हैं उतना पढ़ा पाने में हम असमर्थ हैं। बड़ी कठिनाई से एक ब्राह्मण विद्वान पंडित मिले। उन्होंने इस शर्त पर अधिक पढ़ाना स्वीकार किया कि मैं जितना एक दिन में पढ़ा दूं उतना ये अगले दिन मौखिक सुना दें। माताजी ने शर्त स्वीकार कर ली। अगले दिन की तो बात दूर रही माताजी ने पढ़ने के तत्काल बाद ही उसे सुना दिया। पढ़ाने वाले विद्वान् बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने परिश्रम करके दो माह के अति अल्प समय में पूरी व्याकरण को पढ़ा दिया व माताजी ने कंठस्थ कर लिया। इसके बाद तो अन्य व्याकरण जैसे जैनेन्द्रप्रक्रिया, शब्दार्णवचन्द्रिका, जैनेन्द्रमहावृत्ति जैसी दुरूह व्याकरणों को अपने शिष्यों तथा मुनियों को पढ़ाकर हृदयंगम कर लिया। प्राचीन धर्म ग्रन्थों का रसास्वादन प्राप्त करने के लिए व्याकरण ज्ञान अति आवश्यक है। इसी दृष्टि से पूज्य माताजी ने अपने सभी शिष्यों को सर्वप्रथम इस कातंत्र व्याकरण को ही पढ़ाया। इसी बीच जम्बूद्वीप रचना निर्माण की भी चर्चा चलती रही। मुझे प्रारम्भ से ही जम्बूद्वीप रचना निर्माण की रुचि रही और मैंने पूज्य माताजी को वचन दिया कि रचना निर्माण में आपके संयम में किसी भी प्रकार से बाधा नहीं आने देंगे। मात्र आपका आशीर्वाद आवश्यक है। रचना निर्माण को मूर्तरूप प्रदान करने में अथक परिश्रम करने के बावजूद भी पूज्य माताजी की सहायता के प्रतिफल स्वरूप ही उस परिश्रम से कभी थकान का अनुभव नहीं हुआ। बल्कि उत्साह निरन्तर वृद्धिंगत होता गया। इसी मध्य माताजी जो साहित्य सृजन का कार्य कर रही थीं उसको भी प्रकाशित करने का सम्यक् अवसर प्राप्त हुआ। सन् 1972 में पूज्य माताजी के संघ के साथ दिल्ली आगमन हुआ। दिल्ली आने से पहले पूज्य माताजी से शिक्षण प्राप्त कर शास्त्री एवं न्यायतीर्थ की परीक्षाएँ मैने तथा पूज्य माताजी के अन्य शिष्यों ने उत्तीर्ण कर ली थीं। (14)