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________________ 78 कातन्त्ररूपमाला 'टादौ स्वरे वा // 202 // क्रोष्टशब्दस्य ऋत उर्वा भवति टादौ स्वरे परे / इति द्वितीयविकल्प: / इति उभयविकल्पे त्रैरूप्यं / बहुक्रोष्टुना, बहुक्रोष्ट्वा, बहुक्रोष्ट्रा। बहुक्रोष्टुभ्यां / बहुक्रोष्टुभिः / इत्यादि / सम्बोधने। हे बहुक्रोष्टु, हे बहुक्रोष्टो। हे बहुक्रोष्टुनी / हे बहुक्रोष्टूनि / इत्यादि / ऋकार लकार टुकारान्ता एकारान्ताश्चाप्रसिद्धाः / / ऐकारान्ता नपुंसकलिङ्गो अतिरैशब्दः / तस्य ह्रस्वत्वे सन्ध्यक्षराणामिदुतौ ह्रस्वादेशे // 253 // सन्ध्यक्षराणां ह्रस्वादेशे सति इदुतौ भवत: / तपरकरणमसन्देहार्थं / इति एकारस्यैकारस्य च ह्रस्व इकारः। ओकारस्यौकारस्य च ह्रस्व उकार:। अतिरि। नामिन: स्वरे इति नुरागम:। अतिरिणी। अतिरीणि। पुनरपि। टादौ स्वरे भाषितपुंस्कं पुंवद्वा इति विकल्पेन पुंवद्भावः। यत्र पुंवद्रावस्तत्र सुरैशब्दवत् / अतिरिणा, अतिराया। व्यञ्जनादौ प्रत्यये परे रैरिति आत्वं / कुत: ? एकदेशविकृतमनन्यवत् इति न्यायात् / अतिराभ्यां / अतिराभिः / अतिरिणे, अतिराये। अतिराभ्यां / अतिराभ्यः / इत्यादि / इति ऐकारान्ता: / ओकारान्तो नपुंसकलिंगश्चित्रगोशब्दः / तत्र ओकारस्य ह्रस्व उकारः / मृदुशब्दवत् / चित्रगु। बहु क्रोष्ट्र शब्द है। "क्रोष्टुः ऋत उत्. संबुद्धौ शसि व्यञ्जने नपुंसके च” इस २०१वें सूत्र से नपुंसक लिंग में, क्रोष्ट के ऋकार को उकार हो जाता है अत: बहु क्रोष्ट बहुक्रोष्टुनी बहुक्रोष्टूनि / "टादौ भाषितपुंस्कं पुंवद्वा” इस २५२वें सूत्र से टा आदि स्वर वाली विभक्ति के आने पर विकल्प से पुंवद्भाव हुआ। इस एक विकल्प से पुंवद्भाव हुआ। इस एक विकल्प से दो रूप बनेंगे। पुन: ___ *टा आदि स्वरवाली विभक्ति के आने पर क्रोष्ट शब्द के ऋकार को विकल्प से उकार हो जाता है // 202 // यह दूसरा विकल्प हुआ। इस प्रकार से दो विकल्प से तीन रूप बनेंगे अर्थात् एक बार उकारांत शब्द को पुल्लिंगवत् करने से भानु के समान रूप चलेंगे। दूसरी बार 'खलपु' के समान, तीसरी बार पितृवत् रूप चलेंगे / यथा ऋकारान्त, लकारांत, लूकारांत एवं एकारांत शब्द अप्रसिद्ध हैं। ऐकारांत नपुंसक लिंग अतिरै शब्द है। 'स्वरो ह्रस्वो नपुंसके' इस २४४वें सूत्र से ह्रस्व प्राप्त था-.. संध्यक्षर को ह्रस्व आदेश करने पर ह्रस्व इकार और उकार हो जाता है // 253 // इत् उत् में त् शब्द से ह्रस्व ही लेना। इसमें सन्देह को दूर करने के लिये ही त् शब्द है इसलिये ए ऐ को ह्रस्व इकार और ओ और को ह्रस्व उकार हो गया। अत: अतिरि बना। यह अतिरि शब्द वारिवत चलेगा। अत: 'नामिन: स्वरे' से न का आगम हो जावेगा और टा आदि विभक्ति के आने पर "टादौ स्वरे भाषितपुंस्कं पुंवद्वा” इस सूत्र से विकल्प से पुंवद् भाव होने से 'रै' शब्दवत् रूप चलेंगे। व्यंजन वाली विभक्ति के आने पर '' सूत्र से आकार हो जाता है। प्रश्न यह होता है कि जब अतिरि शब्द में रै' नहीं है तब यह सूत्र कैसे लगा ? तो “एकदेशविकृतमनन्यवत्" इस न्याय से एक देश विकृत होने से कुछ अन्तर नहीं पड़ता है अत: x यह सूत्र पहले आ चुका है।
SR No.004310
Book TitleKatantra Vyakaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmati Mataji
PublisherDigambar Jain Trilok Shodh Sansthan
Publication Year1992
Total Pages444
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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