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________________ - 2 जैन मतानुसार, इन्द्रियाँ दो प्रकार की है, एक द्रव्येन्द्रिय और दूसरी भावेन्द्रिय / उनके और भी दो भेद है - निवृत्ति और उपकरण / इनके भी बाह्य और आभ्यन्तर भेद है / तो इस में इन भेदों को बताकर उनकी चर्चा करके उस को साबीत किया है / शक्ति-पदार्थ (द्रव्य) गुण, कर्म आदि से एअ अलग स्वतंत्र पदार्थ है ऐसा बताकर प्राचीन और नव्य नैयायिकों के मतों की आलोचना करके अनेक प्रमाण उपस्थित करके शक्ति एक अलग पदार्थ है इस की सविस्तर चर्चा करके शक्ति की सिद्धि की है / वैशेषिकादि शक्ति न मानते सिर्फ छः पदार्थों को ही मानते है / लेकिन उपाध्यायजीने इन के मत का खंडन किया है। धर्माधर्म - शभाशभ संस्कार ये आत्मा के अपने ही विशेष रूप गुण है-ऐसा माननेवालों के मत का खंडन कर के बताया है कि जैन दर्शन ये गुण धर्माधर्म या पुण्य पापादि आत्मा के नहीं लेकिन तत्त्वतः पुद्गल के ही विकार है ऐसा बताकर, अदृष्ट को नैयायिकों जो विशेष गुणरुप मानते है उस का खंडन करके अनेक युक्तियों के द्वारा अदृष्ट के पौद्गलिकत्व की सिद्धि की है / तदुपरांत छोटे बडे अनेक विषयों की चर्चा कर के जैन दर्शन के मंतव्यों की सच्चाई साबित की है। कुछ स्थानों पर अन्य मतावलंबियों के विविध मतों को प्रस्तुत किया है लेकिन उन पर अपना स्वमंतव्य ठीक से प्रस्तुत किया नहीं लगा। 3. वादमाला तीसरी का सार इस वादमाला में स्वत्ववाद और सन्निकर्षवाद दोनों वादों की चर्चा की है। स्वत्व रूप पदार्थ अतिरिक्त रूप है या सम्बन्ध विशेष रूप है या किम स्वरूप में है। इस प्रश्न पर विविध दर्शनिकों के विभिन्न मत प्रस्तुत किये है। सन्निकर्षवाद में द्रव्य (पदार्थ) चाक्षुषका अनुकरण करके चक्षु संयोग हेतुना का विचार किया है और भिन्न भिन्न नैयायिकों के मत बताकर मतभेद का खंडन किया है और परसमय की मान्यता प्रस्तुत की है। 4. विषयता वाद ___ इस कृति में विषयता नामक पदार्थ विषय तथा ज्ञान आदि से भिन्न है ऐसा सिद्ध कर के विषयता के मेदों का विवेचन किया है। जब ज्ञान से विषय की प्रतीति हो तब विषय में ज्ञान का अनुभव होता है / नयायिक आत्माको ज्ञान का आधार समवाय सम्बन्ध से मानते है। लेकिन आधार विषयता सम्बन्ध से विषय बनता है। प्राचीन ऐसा कहते है कि विषयता स्वरूप सम्बन्ध से है। इसलिए वह ज्ञान और विषय से भिन्न पदार्थ नहीं।' इस के विरुद्ध उपाध्यायजी हरकत उठाते है-विरोध करते है / वे कहते हैं कि अगर विषयता ज्ञान स्वरूप है तो भूतल घटवाला है. इस ज्ञान से निरूपित जो विषयता घट और भूतल में रहती है तो उस में अभेद पड जाएगा / और अभेद होने से उक्त प्रकारवाले ज्ञान से
SR No.004308
Book TitleNavgranthi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherYashobharti Jain Prakashan Samiti
Publication Year1981
Total Pages320
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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