________________ विवक्षित एक योनि में आत्मा उत्पन्न होता है तब व्यवहार से उसका 'जन्म' हुआ ऐसा कहा जाता है यह जन्म अर्थात् उत्पत्ति और विवक्षित जन्म का आयुष्य पूर्ण होने पर (आत्मा देह से अन्यत्र जन्म लेने के लिये चला जाए) देह का विनाश हो, तब उसे विनाश' कहते है / व्यवहार में मृत्यु अथवा मनुष्य या जीव मर गया ऐसा 1 जाता है। हम यह नहीं कहते कि 'आत्मा मर गया है क्योंकि उसकी उत्पत्ति या विनाश है ही नही / यह चैतन्यस्वरूप शाश्वत अविनाशो द्रव्य है, इस लिये आत्मा का जत्म-मरण नहीं है जन्म-मरण देहका है / आत्मा तो धव-नित्य द्रव्य है / कर्मसत्ता का वशवर्ती बनकर इस संसार के मंच पर विविध प्रकार के पात्रों के रूप में अच्छेबुरे नाटकों का अभिनय करता है इसीलिये पर्याय की दृष्टि से ही उत्पत्ति और विनाश समझना चाहिये। 4. नैयायिक आदि जनसाधारण सर्वथा प्रलय' को मानते है. लेकीन जैन दर्शन सर्वथा प्रलय को नहीं मानते, परन्तु हां, 'आंशिक प्रलय' को मानते हैं। इसीलिये उपाध्यायजी ने सर्वथा प्रलय की बात का खण्डन किया है। . 5. इनके अतिरिक्त यहां कुछ मतकार जीव मात्र को मोक्ष-मुक्ति मानते है, जबकि जैनदर्शन समस्त जीवों की मुक्ति हो ऐसा नहीं मानता है। यह बात प्रस्तुत प्रकरण में सुन्दर ढंग से समझाई गई है। 6. अन्य दार्शनिक जगत् को अनादि सान्त मानते हैं. जबकि जैनदर्शन जगत् को (प्रबाह अपेक्षा से) अनादि-अनन्त मानता है। अर्थात् उसका सर्वथा नाश नहीं होता ऐसा मानता है / इस दृष्टि से अनादि सान्त मतवादियों का खण्डन किया है। 7. नैयायिक किसी भी कार्य की निष्पत्ति में 'समवायी असमवायी तथा निमित्त' इन तीन कारणों को मानते है / जब कि जैन कार्योत्पत्ति में उपादान और निमित्त इन दोनों को ही मानते है / अतः नैयायिको की मान्यता का खण्डन किया है। 8. कुछ लोग अवयव और अवयवीका ‘एकान्त मेद' मानते है किन्तु जैन भेदाभेद (एकान्त मेद नहीं और एकान्त अभेद भी नहीं) मानते है / अतः एकान्त-मेदवाद का खण्डन किया है / ___9 'संयोग संयोग से ही हो सकता है ऐसा न्याय और वैशेषिक दार्शनिक मानते है। जब कि जैन दार्शनिक संयोग से संयोग की उत्पत्ति को नहीं मानते ह / अतः उसका खण्डन किया गया है। 10. कुछ दार्शनिक कर्म को सात, तीन अथवा दो क्षण स्थायी मानते है इसका खण्डन करके यहाँ स्वमत का दर्शन कराया है। 11 जन मत शरीर इन्दियादि के विकास और पोषण में 'पर्याप्ति' नामक एक शक्ति को मानता है, जब कि इतर दर्शनकार एसी किसी शक्ति को नहीं मानते / उपाध्यायजी ने जैनमत सम्मत पर्याप्ति का अस्तित्व और उसकी आवश्यकता के सम्बन्ध में विवेचन करके समझाया है।