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________________ [28] निर्माण की प्रक्रिया को अपनी दृष्टि से समझने की चेष्टा की है। वह देखता है कि मैथुनी सृष्टि नर और मादा के संयोग से होती है। इस अनुभव के आधार पर मनुष्य ने मूल तत्त्व, अग्नि और आपः ( सोम ) प्रथम पुरुष और द्वितीय स्त्री रूप स्वीकार कर लिये / ब्रह्म न स्त्री है, न पुमान् / इसलिये नपुंसक लिंग (तत्) मान लिया गया। यही सृष्टि व्याकरण की दृष्टि से पदों की पहचान करते समय अपनाई गई / सामान्यतया सभी पुं-बोधक पद पुल्लिग माने गये और स्त्रीबोधक स्त्रीलिंग / द्रव्यवाची पद तथा जिनका लिंग-बोध संशयात्मक रहा उनको नपुंसक लिंग में गिन लिया गया। संशयात्मकता तब पैदा हुई जब एक पदार्थ को गुणधर्मिता के आधार पर अनेक शब्दों या पदों द्वारा संकेतित किया जाने लगा और सब पदों की निर्माण प्रक्रिया समान नहीं रही तब वस्तु से शब्द के लिंग का कोई सम्बन्ध नहीं रहा / वह अपनी निर्माण प्रक्रिया के आधार पर ही लिंग संकेतित करने लगा। याने स्त्री-प्रत्यय जुड़ने पर स्त्रीलिंग हो गया और पुं-प्रत्यय जुड़ने पर पुल्लिग हो गया। इन दोनों से भिन्न प्रक्रिया से निर्मित पद नपुंसक लिंग परिगणित हो गए। भाषा में लिंगानुशासन : भाषा के लिंगभेद के अध्ययन को लिंगानुशासन कहा जाता है। प्रत्येक व्याकरण के आवश्यक अंग के रूप में इसकी स्थिति को स्वीकारा जाना चाहिए। संस्कृत भाषा को संसार की सब भाषाओं की जननी मानने वाले लोगों की कमी नहीं है, पर जो ऐसा नहीं मानते वे भो इतना तो स्वीकार करते ही हैं कि संस्कृत भाषा का व्याकरण सब से प्राचीन और सर्वोत्कृष्ट है। उसको अध्ययन पद्धति पूरी तरह से वैज्ञानिक है। उसमें लिंगानुशासन की सुदृढ़ परम्परा रही है। उसमें लिंग की दृष्टि से विवेच्य केवल नामिक पद होते हैं। आख्यात, उपसर्ग और निपात लिंगानुशासन की परिधि में नहीं आते। इसका कारण यह है कि इन तीनों का उपयोग नामपदों की सिद्धि के लिए ही होता रहा है। सारे नाम आख्यातज होते हैं। उपसर्ग नाम या आख्यात (क्रिया) से स्वतंत्र होकर प्रयोग में नहीं आते / निपात भी नाम को ही सार्थकता प्रदान करते हैं / इसलिए लिंग की विशेषता नाम-पदों के साथ जुड़ी हुई है। नाम-पदों के लिंग की दृष्टि से पांच प्रकार होते हैं :1. वे नाम जो सदैव निश्चित लिंग में ही प्रयुक्त होते रहे हैं। व्यक्तिवाची संज्ञाओं के लिंग निश्चित होते हैं। उनमें परिवर्तन नहीं होता। यथा-राम, कृष्ण, सीता, लक्ष्मी, अशोक आदि का निश्चित लिंग-बोध है और अपरिवर्तनीय भी है। 2. वे नाम जो गुणधर्मिता बदलने पर लिंग-परिवर्तन की प्रवृत्ति प्रदर्शित करते हैं। स्री, योषित् , दारः आदि जातिवाचक संज्ञाओं में यह प्रवृत्ति देखने को मिलती है।
SR No.004307
Book TitleLingnirnayo Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalaprabhsagar
PublisherArya Jay Kalyan Kendra
Publication Year
Total Pages108
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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