________________ महोपाध्यायश्रीमन्मेपविजयविरचितम् [श्रीभरतचक्रि- . रत्नकुम्भसहतं सा ददेऽष्टोत्तरमुत्तमम् / किकरी तेऽस्मि हे राजन् ! न व्याज व्याहर क्रियाम् // 20 // रत्नभद्रासने वाहुरक्षकान कटकान् पुनः। मृदूनि वसनान्येवं तदुपायनमग्रहीत् // 21 // वैताठ्यपर्वतं प्राप्य साष्टमः श्रमवर्जितः / वैताब्याद्रिकुमारं तं सस्मार स्फारशासनः // 26 // रत्नानि रत्नभूषांश्च देवदूष्याण्युपाददे / भद्रासनानि भूयांसि तदनुग्रहबद्धधीः // 23 // चक्रे गुहां तमिस्राख्यामुद्दिश्य चलितो नृपः / कृतमालवने देवं कृतमालमथाऽत्स्मरत् // 24 // चक्रियोग्यानि वस्त्राणि सोऽप्यदात् कन्द्ररासुरः / तत्प्रीतये तनिमित्तं विदधेऽष्टाह्निकोत्सवम् // 25 // सुषेणसेनाध्यक्षश्च समाधिकृत् क्षितीश्वरः / . सिन्धुसागरवैताढयं सीमानं सिन्धुनिष्कुटम् // 26 // दक्षिणं साधयोत्तीर्य चर्मरत्नेन निम्नगाम् / म्लेच्छान् निबद्धय संसाध्य सर्वस्वफलमाहर // 27 // युग्मम् // सोऽप्याज्ञयाऽस्य सेनानी सैन्यर्द्धन समं तटे / चर्मरत्नं द्विहस्ताग्रं गत्वा पस्पर्श तत्करात् // 28 // आतटद्वयमास्तीर्ण सैन्यं तदुपरि स्थितम् / विधाय वश्यमानिन्ये प्राभृतान्याददे ततः // 29 // ढोकयामास सेनानीस्तेभ्यः प्राप्तमुपायनम् / चक्रिणे सत्कृतस्तेन सोऽपि स्वावासमासदत् // 30 // ततः पुनस्तमिस्राया द्वारोद्घाटनकर्मणे / समादिष्टः स सेनानीश्चक्रेऽष्टमतपः स्मरन् // 31 // सम्पूज्य प्राप्य भक्त्याऽयं कपाटौ दण्डरत्नभृत् / सप्ताष्टपादापसृतिं कृत्वा तौ त्रिरताडयत् // 32 // हस्तिरत्नमथारुह्य मणिरत्नं सभासुरम् / कुम्भस्थले खलु न्यास्थत् चतुरङ्गुलमुज्ज्वलम् // 33 // काकिणीरत्नमुद्दीप्तं चतुरङ्गुलमादधत् / गोमूत्रिकाक्रमाच्चक्रे मण्डलानि नरेश्वरः // 34 // योजनान्ते पञ्चधनुः शतायत्यैकयोजनम् / विस्तारतो योजनानि द्वादशान्तस्तमो भिदे // 35 // जातान्येकोनपश्चाशत् तानि सर्वगुहान्तरे / गुहार्द्धमार्गे च सरित् उन्मग्नाऽन्या निमग्निका // 36 //