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________________ इन्होंने अपनी रचना शक सम्वत् 705 अर्थात् विक्रम संवत् 840 में पूर्ण की। कवि द्वारा वर्णित भौगोलिक स्थिति तथा उनकी गुरु परम्परा से भी यह बात निर्विवाद साबित होती है। जैन-पुराणों का उल्लेख करते हुए श्री परमानन्दजी (जिन्होंने जैन जगत में प्रकाशित पुराणों उसके रचयिताओं तथा रचनाकाल का उल्लेख किया है।) ने भी इसी बात की पुष्टि की है कि "जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण शक संवत् 705 की रचना है।" पुराणकार ने अपने ग्रन्थ की रचना का समय शक संवत् में दिया है। शायद दक्षिण भारत में शक संवत् का प्रचलन रहा होगा। अतः उन्होंने विक्रम संवत् का उल्लेख न करके शक संवत् को उल्लेखित करना सभुचित समझा होगा। हरिवंशपुराण का रचना-स्थल :___आलोच्य कृति में इस ग्रन्थ के रचना-स्थल का भी कवि ने स्पष्ट उल्लेख किया है। हरिवंशपुराण के अन्तिम सर्ग में लिखा है कि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ वर्धमानपुर में नन्नराज द्वारा निर्मित श्री पार्श्वनाथ के मन्दिर में हुआ था एवं इसका समापन "दोस्तटिका" नगर के भगवान् श्री शांतिनाथजी के मन्दिर में हुआ : कल्याणैः परिवर्धमानविपुलश्रीवर्धमाने पुरे श्री पालियनन्नराजवसतौ पर्याप्तशेषः पुरा। पश्चाद्दोस्तटिकाप्रजाप्रजनितप्राज्यार्चनावर्चने , शान्तेः शान्तेगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम्॥ 66/53 ___ इस प्रकार हरिवंशपुराण की रचना वर्धमानपुर में हुई। जिनसेनाचार्य का पुन्नाट संघ से सम्बन्धित होने के कारण कई विद्वानों ने "वर्धमानपुर" को कर्नाटक राज्य में होने का भ्रम किया है परन्तु यह शहर कहाँ था? इसका अभी तक कुछ निर्णय नहीं हो सका है। लेकिन हरिवंश में वर्णित उल्लेख के अनुसार यह वर्धमानपुर गुजरात प्रान्त के काठियावाड़ में स्थित "वढ़वाण" ही उचित प्रतीत होता है। वर्धमानपुर उस समय का एक विशाल नगर था तथा वहाँ जैन धर्म के अनुयायियों का प्राचुर्य था। "आचार्य हरिषेण" जिन्होंने शक संवत् 853 अर्थात् विक्रम संवत् 989 में इसी शहर में "कथा-कोश" नामक ग्रन्थ की रचना कर उसे पूर्ण किया था। जिनसेनाचार्य ने वर्धमानपुर को "कल्याणैः परिवर्धमानविपुल श्री" तथा "हरिषेण' ने "कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासं" कहा है। "कल्याण" तथा "कार्तस्वर" दोनों शब्दों का अर्थ सुवर्ण या सोना होता है। सुवर्ण के शब्द में कल्याण शब्द संस्कृत कोशों में भी मिलता है परन्तु वाङ्मय में इसका विशेष उपयोग नहीं हुआ है। दोनों के कथनानुसार जिसमें अनेक जैन मन्दिरों का समूह था। चन्द्रमा की चाँदनी की भाँति चमकते महल थे, सोने से परिपूर्ण जन-निवास थे, ऐसा वह वर्धमान शहर था।
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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