________________ कृष्ण-भक्ति का उद्भव और विकास : भक्ति का अर्थ है-"भक्त द्वारा अपने इष्ट के प्रति तादात्म्य स्थापित करना।" इसमें भक्त का अपने इष्ट के प्रति आकर्षण होता है। इसी आकर्षण के द्वारा वह भगवदनुग्रह प्राप्त करने की कामना करता है एवं उसमें विलीन होने की उत्कट उत्कंठा रखता है। हिन्दू-धर्म में हम कृष्ण भक्ति का क्रमिक विकास पाते हैं। प्रारम्भ में इसे वासुदेव भक्ति, सात्वत नारायणीय धर्म, पांचरात्र धर्म इत्यादि कई नामों से अभिहित किया जाता था। जिस प्रकार कृष्ण को विष्णु, इन्द्र, नारायण, वासुदेव आदि से समन्वय स्थापित किया गया है, उसी प्रकार कृष्ण-भक्ति का भी वैदिक काल से क्रमिक विकास होता रहा है। हम इसके विस्तार में न जाकर संक्षेप में ही चर्चा करेंगे कि-"जब कृष्ण को ब्रह्म का अवतार मान लिया गया, उस समय उनकी भक्ति का प्रचार प्रारम्भ हो गया। परन्तु कृष्ण भक्ति का मूल उद्गम सगुण भक्ति का प्रतिपादन करने वाला प्रसिद्ध ग्रन्थ श्रीमद् भागवत ही माना जाता है। महाभारत में कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है, जबकि भागवत में कृष्ण को पूर्ण ब्रह्म के पद पर प्रतिष्ठित किया है।" महाभारत के कृष्ण लोकरक्षण और लोकरेंजन करने वाले थे, परन्तु भागवत में उनके बाल किशोर रूप की महत्ता प्रतिपादित की गई है। इसी से भागवत को श्री कृष्ण भक्ति का सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वप्रधान ग्रन्थ स्वीकार किया गया है। भागवत के आधार पर सर्वप्रथम माध्वाचार्य ने कृष्णोपासना पर विशेष बल दिया। ये दक्षिण के आचार्य थे तथा इनकी प्रसिद्ध धार्मिक पुस्तक "रत्नावली" है। इस सम्प्रदाय को मानने वाले संकीर्तन तथा नगर कीर्तन को भक्ति का सोपान मानते हैं। माध्वाचार्य ने द्वैतवाद के सिद्धान्त पर कृष्ण भक्ति का प्रचार-प्रसार किया। इस समय तक राधा, कृष्ण का अभिन्न अंग नहीं बनी थी परन्तु आगे चलकर निम्बार्काचार्य तथा विष्णुस्वामी ने राधा की पूर्ण प्रतिष्ठा की। निम्बार्काचार्य 12 शताब्दी में हुए। इनके सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र दक्षिण भारत न होकर वृन्दावन था। इन्होंने "ब्रह्मसूत्र" की व्याख्या की तथा "द्वैताद्वैतवाद" सिद्धान्त की प्रतिष्ठा की, जो उनका भक्ति मार्ग था। इस सम्प्रदाय को "हंससम्प्रदाय" भी कहते हैं। ____ निम्बार्काचार्य की भाँति विष्णुस्वामी भी कृष्ण भक्ति के प्रमुख आचार्य थे। इनका दार्शनिक सिद्धान्त "शुद्धाद्वैतवाद" के नाम से प्रख्यात हैं। ये बालकृष्ण के उपासक थे। इनके समुदाय को "रुद्र सम्प्रदाय' के नाम से जाना जाता है। आगे चलकर वल्लभाचार्य के प्रभाव के कारण यह सम्प्रदाय उनके पुष्टि-मार्ग में मिल गया। कृष्ण-भक्ति-परम्परा में महाप्रभु चैतन्य का नाम शीर्षस्थ रखा जाता है। इनके सम्प्रदाय को "चैतन्य सम्प्रदाय" के नाम से जाना जाता है। चैतन्य महाप्रभु मूल रूप से "नवद्वीप" (बंगाल) के थे, परन्तु इनके अनुयायी ब्रज प्रदेश में रहते थे।