________________ इसी प्रकार वेदों की उत्पत्ति३०, यादव वंश की उत्पत्ति, साकेत का नामकरण३२, नागपुर तथा मथुरा का नामकरण आदि ऐसी अनेक बातें हैं, जो परम्परा वर्णन से नितान्त भिन्न हैं। आचार्य जिनसेन ने इसमें धर्मशास्त्र तथा संगीत शास्त्र का भी पर्याप्त विवरण दिया है। उन्होंने राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर में लोकालोक विभाग का सांगोपांग निरूपण३३, भगवान नेमिनाथ की दिव्यध्वनि के प्रकरण में तत्त्वों का सूक्ष्मता से विवेचन३४, उपवासों की विधि तथा सब प्रकार२५, आहार दान देने की प्रक्रिया तथा द्वादशांग का वर्णन३६ बड़े ही तात्त्विक ढंग से किया है। - इस प्रकार हरिवंशपुराण की बहुविध सामग्री को देखकर निसंदिग्ध रूप से यह कहा जा सकता है कि जिनसेन ने भारतीय वाङ्मय को एक अमूल्य रत्न प्रदान किया है, जिसका भारतीय संस्कृति को अभूतपूर्व योगदान है। सूरसागर का परवर्ती साहित्य पर प्रभाव : ब्रज भाषा काव्य कला के विकास में सूरदास का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। सूर से पूर्व हिन्दी काव्य कला की स्थिति नगण्य थी। सूर ने अपनी मौलिक प्रतिभा से कृष्ण काव्य परम्परा तथा अभिव्यंजना को समृद्धि प्रदान की। सूर के समकालीन तथा परवर्ती कवियों ने सूरसागर का अनुसरण कर इस परम्परा को पोषित किया। सूरसागर ने अष्टछाप तथा वल्लभ सम्प्रदाय के अन्य कवियों को तो प्रभावित किया ही है परन्तु इसका प्रभाव राधावल्लभ, हरिसम्प्रदाय एवं चैतन्य सम्प्रदाय के कृष्ण काव्य पर भी पड़ा है। सूरसागर के पद साहित्य का अपने समय में व्यापक आकर्षण था। इसका परिणाम यह हुआ कि न केवल भक्तिकाल में वरन् रीतिकाल में भी पद साहित्य की रचना हुई। इतना ही नहीं आधुनिक काल में भी सूरसागर की पद परम्परा प्रचलित होती रही है। समवर्ती परम्परा :महाकवि तुलसी :-रामभक्त काव्य परम्परा में तुलसी अपनी सानी नहीं रखते। तुलसी की गीतावली तथा कृष्ण गीतावली की प्रेरणा सूरसागर की पद रचना ही है। . गीतावली की कतिपय पंक्तियाँ सूरसागर से अद्भुत साम्य रखती हैं। उदाहरणार्थसूरसागर - आंगन खैले नन्द के नन्दा। जदुकुल कुमुद सुखद चारु चँदा॥ गीतावती - आंगन खेलत आनन्द कन्द। रघुकुल कुमुद सुखद चारु चंद।२८ . कुछ अन्य पंक्तियाँ जो सूरसागर की भावभूमि से निरूपित है, देखियेसूरसागर - जसोदा हरि पालने झुलावै। गीतावली - पालने रघुपतिहिं झुलावै।