________________ कथावस्तु में तो परिवर्तन है ही, वर्णन एवं व्यवस्था में भी कुछ एकदम नवीन तथा विशेष बातें कही गई हैं। उदाहरणार्थ-द्रौपदी के स्वयंवर का प्रसंग। इसी प्रकार सामन्यतः कौरवों और पाण्डवों के पारस्परिक कलह को महाभारत के युद्ध का मूल कारण माना जाता है लेकिन इस ग्रन्थ में जरासंध तथा यादववंश कृष्ण को इस युद्ध का कारण बतलाया गया है। इसके अनुसार एक तरफ जरासंध की ओर से कौरव तथा दूसरी और श्री कृष्ण के पक्ष में पाण्डवों ने युद्ध किया था। नारद की उत्पत्ति तथा दुर्गा की उत्पति में भी कवि ने नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है जिसे हम पिछले अनुच्छेद में देख चुके हैं। सामुद्रिक शास्त्र :-नवीन प्रसंगों के उपरान्त जिनसेनाचार्य ने सामुद्रिक शास्त्र का भी इसमें सुन्दर निरूपण किया है। उदाहरणार्थ राजा के पैर मछली, शंख तथा अंकुश आदि के चिह्नों से युक्त होते हैं। कमल के भीतरी भाग के समान उसका मध्यभाग होता है, उनके नख चिकने तथा लाख से होते हैं। उनकी गांठे नसों से रहित छिपी रहती हैं, कछुए के समान कुछ-कुछ वे उठे होते हैं तथा पसीना से युक्त रहते हैं। __ पापी के पैर सूपा के आकार, फैले हुए, नसों से व्यापक, टेड़े, रूखे नखों से युक्त, सूखे एवं विरल अंगुलियों वाले होते हैं। जो पैर छिद्र सहित एवं कषैले रंग के होते हैं वे वंश का नाश करने वाले माने गये हैं। हिंसक मनुष्यों के पैर जली हुई मिट्टी के समान और क्रोधी के पीले रंग के होते हैं। जिनका मुख भरा हुआ, सौम्य, स्मय और कुटिलता रहित होता है, वे राजा होते हैं। बड़े मुख वाले अभागे और गोलमुख वाले मूर्ख होते हैं। स्त्री के समान मुख वाले निर्धन होते हैं।२८ ..... इसके उपरान्त भी हरिवंशपुराण में इस शास्त्र का विशद वर्णन मिलता है, इससे ज्ञात होता है कि जिनसेनाचार्य इस विद्या के निपुण ज्ञाता थे। भौगोलिक सामग्री :.. हरिवंशपुराण में भौगोलिक सामग्री भी पर्याप्त है। कवि ने अनेक राजाओं के राज्यों का, नगरों का विस्तृत वर्णन किया है। उदाहरणार्थ ऋषभदेव की दीक्षा के समय चारों दिशाओं के अनेक नगरों का उल्लेख है-कुरुजांगल, पंचाल, सूरसेन, पटचर, यवन, काशी, कौशल, मद्रकार, वृकार्थक, सोल्व, आवृष्ट, त्रिगर्त, कुशाग्र, मत्स्य, कुणीयान और मोक मध्य देश में थे। वाह्निक, आत्रेय, काम्बोज, यवन, आभीर, क्वाथतोय, शर, वाटवान, कैकय, गान्धार, सिन्धु, सौवीर, भारद्वाज, देशरूक, प्रास्थाल और तीर्णकर्ण ये देश उत्तर की ओर स्थित थे। खंग, अंगारक, पौण्डू, मल्ल, प्रवक, मस्तक, प्राग्ज्योतिष, वंग, मगध, मानवर्तिक, मलद और भार्गव ये देश पूर्व दिशा में स्थित थे। वाणमुक्त, वैदर्भ, माणव, सककासिर, मूलक, अश्मक, दाण्डिक, कलिंग, आंसिक, कुन्तल, नवराष्ट्र, माहिस्क, प्ररूष