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________________ दिशाएँ गूंज उठी, हाथियों तथा घोड़ों ने अपने बन्धन तोड़ दिये, स्त्री-पुरुष भयभीत हो गये, महलों के शिखर टूट गये तथा श्री कृष्ण स्वयं चिंतित हो गये। जब उन्हें यथास्थिति की जानकारी मिली, तब वे हर्षित हुए। उन्होंने नेमिकुमार का आलिंगन कर उनका अत्यधिक सत्कार किया। घर आने पर श्री कृष्ण को जब यह विदित हुआ कि-अपनी स्त्री के निमित्त से उन्हें कामोद्दीपन हुआ है, तब वे अत्यधिक प्रसन्न हुए। श्री कृष्ण ने नेमिकुमार के लिए विधिपूर्वक भोजवंशियों की राजकुमारी "राजीमती" की याचना की। अपने स्वजनों को उसके पाणिग्रहण संस्कार की सूचना दी और समस्त राजाओं को स्त्रियों सहित अपने यहाँ आमंत्रित किया।६ वर्षा ऋतु में एक दिन युवा नेमिकुमार ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित रथ पर सवार हो अनेक राजकुमारों के साथ विवाह के लिए चल पड़े। प्रसन्नता से युक्त राजीमती तथा नगर की स्त्रियाँ प्यासे नेत्रों से नेमिकुमार के सौन्दर्यरूपी अमृत का पान करने लगी। कुमार राजकुमारों के साथ उपवन में धीरे-धीरे गमन कर रहे थे, उसी समय मार्ग. में एक समय भय से जिनके मन और सिर काँप रहे थे, जो अत्यन्त विह्वल थे, पुरुष जिन्हें रोके हुए थे और नाना जातियों से युक्त थे, ऐसे तृणभक्षी पशुओं को देखा। पशुओं का भय मिश्रित क्रन्दन सुनकर नेमिकुमार ने रथ को वही रुकवाया और सारथि से उन पशुओं के बारे में पूछा। सारथि ने विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर उनसे कहा—हे नाथ! आपके विवाहोत्सव में जो माँस-भोजी राजा आये हैं, उनके लिए नाना प्रकार के मांस तैयार करने के लिए यहाँ पशुओं का निरोध किया गया है। सारथी के उपर्युक्त वचन सुनकर नेमिकुमार ने जिनका हृदय प्राणिदया से सरोबार था, तुरन्त ही उन पशुओं को बाड़े में से मुक्त कराया तथा राजपुत्रों को सम्बोधित करते हुए कहने लगे कि गृहमरण्यमरण्यतृणोदकान्यशनपानमतीव निरागसः। मृगकुलस्य तथापि वधो नृभिर्जगति पश्यत निघृणतां नृणाम्॥ रणमुखेषु रणार्जितकीर्तयः करितुरंगरथेष्वपि निर्भयान्। अभिमुखानभिहन्तुमधिष्ठितानभिमुखाः प्रहरन्ति न हीतरान्॥ शरभसिंहवनद्विपयूथपान् प्रकुपितान् परिहत्य विदूरतः। मृगशशान् पृथुकान् प्रहरत्यमून् कथमिवात्र पुमान्न विलजते॥ चरणकण्टकवेधभयाद्भटा विदधते परिधानुमुपानहाम्। मृदुमृगान् मृगयासु पुनः स्वयं निशितशस्त्रशतैः प्रहरन्ति हि॥१८ अर्थात् हे राजपुत्रों! वन हो जिनका घर है, वन के तृण और पानी ही जिनका भोजनपान है और जो अत्यन्त निरपराध है, ऐसे दीन-मृगों का संसार में फिर भी मनुष्य -
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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