________________ रास-लीला : सुनहु हरि मुरलि मधुर बजाई, मोहे सुर नर नाग निरंतर ब्रज वनिता उठिधाई। द्रुम बेली अनुराग पुलक तनु, ससि थक्यौं निसिन घटाई॥१७ पनघट-लीला : छाडि देहु मोरि लट मोहन। कुच परसत पुनि-पुनि सुकचत नहिं, आई तजि गोहन॥ / ' जुवति आनि देखि है कोऊ, कहति वंक करि भौंहन॥१८ दान-लीला : माँगत ऐसो दान कन्हाई। अब समझी हम बात तुम्हारी, प्रगट भई कछु छौं तरुनाई॥१९ हिंडौला : हिडोरे झूलत स्यामा स्याम। . ब्रज जुवति मंडली चहूँधा, निरखत विपकनि काम॥२० विप्रलम्भ श्रृंगार : सूर ने संयोग शृंगार की भाँति विरह सन्तप्त भावों की भी सहज अभिव्यक्ति की है। उनका विरह-वर्णन अत्यन्त सजीव, स्वाभाविक एवं मार्मिक है। भ्रमरगीत प्रसंग गोपियों की विरह व्यथा का उत्कृष्ट उदाहरण है। श्री कृष्ण का वियोग गोपियों तक ही सीमित न रहकर ब्रज में उसका प्रभाव व प्रचार दिखाई देता है। गोपियों की दयनीय दशा एवं विरह-व्यथा का तो अनुमान लगाना भी कठिन है। श्री कृष्ण के मथुरागमन पर गोपियों की मनोदशा बड़ी विचित्र हो जाती है। वे अपना मर्म किसके समक्ष प्रकट करे? सूर ने गोपियों की द्वन्द्वात्मक मानसिक स्थिति का इस तरह अंकन किया है सुने है स्याम मधुपुरी जात। सकुचानि कहि न सकति काहू सो, गुप्त हृदय की बात। संकित वचन अनागत कोउ, कहि जु गयौ अधरात। नींद न परे घटे नहिं रजनी, कब उठी देखो प्रात। नंद-नंदन तो ऐसे लागे, ज्यौं जल पुरइनि पात।२१ . -