________________ तथा दार्शनिक मान्यताओं का सुन्दर समन्वय इस पद की अन्य विशेषता को प्रकट करता है। उद्धौ मोहि ब्रज बिसरत नाहिं। हंस सुता की सुन्दर कगरी कुंजन की परछाँही। या मथुरा कंचन की नगरी मनि मुक्ताहल जाही। जबहि सूरति उतावन तन की जिय उमगत तनु नाहीं।१३० महाकवि सूर ने वृन्दावन को भगवान् का निजधाम इस प्रकार घोषित किया है शोभा अमित अप अखा। आप आत्माराम। पूरन ब्रह्म प्रकट पुरुषोत्तम सबविधि पूरन काम। वृन्दावन निजधाम परम रुचि वर्णन कियौ बढ़ाय।१३१ लीलाधाम ही परमधाम है। इसी परमधाम के स्पर्श से सूर का दुःख दैन्य दूर हुआ, उनका घिघियाना बन्द हो गया तथा कृष्ण के गुणगान में प्रवृत्त हो गये। कृष्ण लीला के गुणगान में सूर ने अपने जीवन की सार्थकता प्रमाणित कर दी। सूर के अलावा भी अनेक कृष्ण भक्त कवियों ने वृन्दावन के महत्त्व को निरूपित किया है। रसखान जैसे समर्थ कवि ने यह कहा कि-"मानुष हो तो वही रसखान, बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन"। महाकवि बिहारी ने भी कृष्ण-राधिका के निकुंज धाम का ब्रज के पग-पग को प्रयागराज कहा है।३२ . . : वल्लभ-दर्शन में ब्रह्म के तीन रूपों में से सच्चिदानन्द ब्रह्म को रस रूप माना है तथा भगवान् का यह रस रूप वृन्दावन में नित्य विहार करता है। सूर ने इसी मान्यता के आधार पर गोलोक वृन्दावन का महिमागान किया है। - सूर की दार्शनिक मान्यताओं के बारे में डॉ० द्विवेदी ने कहा है कि-"सूरसागर में शुद्धाद्वैत दर्शन की सम्पूर्ण बातों का समावेश दिखाई देता है। सूर की चित्तवृत्ति भी इसमें पूर्ण रूप से रमी है, इसी कारण उनके काव्य में शुद्धाद्वैत का सम्पूर्ण सामंजस्य दिखाई देता है। लेकिन दार्शनिक मान्यताओं के प्रतिपादन में भी सूर की काव्यात्मकता को कहीं पर भी आघात नहीं लगा है। सूर एक तत्त्वचिन्तक न होकर संवेदनशील कवि है। अतः उनकी काव्यधारा तमाम दार्शनिक मान्यताओं से ऊपर उठकर प्रवाहित हुई हैं। सूर की कविता मात्र दार्शनिक सीमाओं से सामंजस्य स्थापित करती हुई नहीं चलती वरन् उसमें प्रत्येक जगह उदात्तता है, जो उनकी विलक्षण काव्य प्रतिभा की परिचायक है। दर्शन के हिमखंड, काव्य गंगा के प्रवाह में पूर्णरूप से विलीन हो गये हैं—यही सूर काव्य की विशेषता है।"१३३