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________________ पूरन ब्रह्म बखानै, चतुरानन सिव अन्त न जाने। गुनगुन अगम निगम नहिं पावै, ताँहि जसोदा गोद खिलावै॥१८१ वैसे सूरसागर में श्री कृष्ण की लौकिक-लीलाओं की ही प्रधानता रही है परन्तु कवि ने बीच-बीच में उनके इस स्वरूप का भी चित्रण किया है। सूर के अनुसार श्री कृष्ण ही सगुण व निर्गुण दोनों स्वरूप है। निर्गुण स्वरूप में वह गुणातीत, अजर, अमर, अविनाशी, अविगत एवं अगोचर है तो सगुण स्वरूप में यही ब्रह्म लीलाधारी, राधावर, कुंजबिहारी एवं दामोदर है। सगुण का रूप धारण करने के लिए ही उन्होंने ब्रज में अवतार लिया है। उनकी माया अद्भुत है आदि निरंजन निराकार, कोऊ हुतो न दूसर। रचौ सृष्टि विस्तार भई, इच्छा इक औसर॥८२ श्री कृष्ण ही अपनी लीला विस्तार के लिए जड़-चेतन में परिणित होते हैं तथा स्वयं अवतरित होते हैं। यही प्रकृष्ट पुरुषोत्तम अविनाशी एवं सभी प्राणियों की आत्मा है। जगत में जो दृष्टिगोचर होता है, वह सब उन्हीं का अंश है। आदि सनातन परब्रह्म प्रभु घट-घट अन्तरयामी। सो तुम्हरै अवतरै आनि कै सूरदास के स्वामी॥१८३ . परब्रह्म ने ही क्रीडा करने की इच्छा से वृन्दावन, कुंजलता, गोवर्धन पर्वत, गोपिकाओं इत्यादि का परिणमन किया है और वह ब्रह्म श्री कृष्ण है। श्री कृष्ण के विराट स्वरूप का वर्णन करते हुए सूर ने लिखा है कि पाताल उनके चरण, आकाश उनका सिर है तथा सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र एवं पावक सभी उसी से प्रकाशित हो रहे हैं। नैननि निरखि स्याम स्वरूप। .. रह्यौ घट-घट व्यापि सोइ, जोति रूप अनूप। चरन सरन पाताल जोक, सीस है आकास। सूर चन्द्र नक्षत्र पावक सर्व तासु प्रकास॥८४ इतना ही नहीं श्री कृष्ण स्याम हरि मनसा वाचा कर्मणा अगोचर रूप है। नेत्रों से उन्हें देखा नहीं जा सकता। उनके सगुण रूप को समझना अत्यन्त ही कठिन है। इसी ब्रह्म की स्तुति करते सूरसागर में नारद मुनि कहते हैं कि हे परमात्मा! तुम्हीं अज हो, अनंत हो, तुम्हारे जैसा ईश अन्य कोई नहीं है, तुम्हीं अनुपम हरि हो तब नारद हसि कहयौ, सुनौ त्रिभुवन पति राई। तुम देवनि के देव देत हो मोहिँ बड़ाई॥ विधि महेस सेवत तुम्हें मैं बपुरा किहिं माहिँ। कहै तुम्हें प्रभु देवता या मैं अचरज नाहिँ॥१८५
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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