________________ जौ देखें द्रुम के तरै मुरझी सुकुमारी। चकित भउ सब सुंदरी यह तो राधा री। याहि कौं खोजति सबै, यह रही कहाँ री। धाइ परौं सब सुन्दरी, जो जहाँ-तहाँ री। तन की तनकहुँ सुधि नहीं व्याकुल भई बाला। यह तो अति बेहाल है, कहँ गए गोपाला॥५९ - इसके पश्चात् कृष्ण पुनः प्रकट होते हैं, महारास प्रारम्भ होता है। महारास में संभोग के अनेक भाव निरूपित हैं। उसके पश्चात् जल-विहार का भी वर्णन आता है। जिनसेनाचार्य ने अपनी कृति हरिवंशपुराण में श्री कृष्ण की इस मधुर लीला का स्पष्ट उल्लेख किया है। परन्तु यह वर्णन सूरसागर जैसा न तो भावपूर्ण है और न ही विस्तृत। आचार्यजी ने इस प्रसंग में संयोग-वियोग दोनों दशाओं को संक्षेप में निरूपित किया है। श्रीकृष्ण जब कुमारावस्था को प्राप्त करते हैं, उस समय वे अत्यन्त ही निर्विकार और कोमल हृदय को धारण कर अतिशय यौवन के उन्माद से भरी एवं प्रस्फुटित स्तनों वाली गोप-कन्याओं के साथ रास-क्रीड़ा करते थे। इस रास-क्रीड़ा के समय वे गोपकन्याओं के लिए अपने हाथ की अंगुलियों के स्पर्श का सुख प्रदान कराते थे परन्तु वे स्वयं अत्यन्त निर्लिप्त रहते थे। जैसे अंगुठी में जड़ी हुई मणि स्त्री के हाथ की अंगुली से स्पर्श करने के बावजूद भी निर्विकार रहती है। स बालभावात्सुकुमारभावस्तथैवमुद्भिन्नकुचाः कुमारः। . सुयौवनोन्मादभराः सुरासैररीरमत्केलिषु गोपकन्याः॥ करांगुलिस्पर्शसुखं स रासेष्वजीजनगोपवधूजनस्य। . सुनिर्विकारोऽपि महानुभावो मुमुद्रिकानद्धमणियथार्थ्यः॥६° 35/65-66 इस रासलीला के समय गोपियों को कृष्ण से मिलने का अत्यधिक अनुराग सुख मिलता था। रास-लीला सबके मन को आनन्द देने वाली थी। इस लीला से सभी की प्रसन्नता बढ़ जाती थी परन्तु इसका अभाव सभी को विरहजन्य संताप प्रदान करने वाला था। . जिनसेनाचार्य ने रासलीला की मधुरता को स्वीकार करने के बाद श्री कृष्ण को / इस लीला में संलग्न होने पर भी उन्हें निर्लिप्त बताया है। कवि ने कृष्ण की गौरवता एवं चरित्रता को बड़े ही सुन्दरता के साथ वर्णित किया है। रासलीला समस्त गोपियों के लिए हर्ष को बढ़ाने वाली थी परन्तु उनका विरहानुराग भी विह्वलता से युक्त था। पुराणकार ने गोपियों के हर्ष अथवा शोक के मनोभावों को प्रकट नहीं किया है वरन् उन्होंने इसका उल्लेख या संकेत मात्र किया है। =141=