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________________ गोपियाँ प्रेमातिरेक में मिलने की संभावना से उत्पन्न हर्ष और अनुराग के कारण शीघ्रता में भूषणादि स्थानान्तर पर धारण कर अर्धरात्रि के समय सहसा घर से बाहर निकलने लगती हैं। उन्हें देखकर उनके स्वजन उन्हें इस अनुचित कार्य के लिए मना करते हैं। गोपियाँ तो पागल बन गईं थी अतः वे निवारित होने पर भी भाद्र-पद के तेज जल प्रवाह की भाँति कृष्ण को मिलने के लिए दौड़ पड़ी। चली बन बेनु सुनत जब धाइ। मातु-पिता-बांधव अति त्रासत जाति कहाँ अकुलाइ। सकुच नहीं संका कछु नहीं, रैनि कहाँ तुम जाति। जननि कहति दई की घाली, काहे को इतराति। मानति नहीं और रिस पावति निकसी नातौ तोरि। जैसे जल-प्रवाह भादौ को, सो को सकै बहोरि॥५४ इस पद में गोपियों की उत्कंठा एवं औत्सुक्य का सुन्दर वर्णन हुआ है। जब वे ऐसी अवस्था में कृष्ण के पास पहुँची तो उनके मन में हर्ष का समुद्र लहरें लेने लगा। वे परम आश्वस्त हुई परन्तु श्री कृष्ण भी रसिक ठहरे, उन्होंने कौतुक वश उनके अनन्य माधुर्य भाव की परीक्षा लेने की ठानी। गोपियों के इस अनुचित व्यवहार के लिए वे उन्हें डाँटने लगे। कृष्ण का ऐसा व्यवहार देखकर गोपियाँ निष्प्रभ हो गईं परन्तु कृष्ण की चतुराई को समझकर कहने लगी कि मोहन! तुम्हारी वंशी ने हमें नाम लेकर बुलाया है। कृष्ण कहते हैं कि तुम अच्छे घरों की बहू-बेटियाँ हो, अर्द्धरात्रि को दौड़कर आई हो, तुम सब ने अच्छा नहीं किया। अब भी समय है, अपने-अपने घर चली जाओ। तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें रोका नहीं? : गोपियाँ कृष्ण के इस प्रकार के प्रतिकूल व्यवहार से अतीव कातर हो उठीं, उनके निष्ठर व्यवहार से उनका मुख कुम्हला गया। हृदय टूट गया। सूर ने गोपियों के हर्ष एवं विषाद का बड़ा मनभावन निरूपण किया है। - गोपियों का हर्ष : देखि स्याम मन हरष बढ़ायौ। तैसिय सरद चाँदनी निर्मल, तेसोइ रास-रंग उपजायौ। तैसिय कनक-बरन सब सुंदरि, इहिँ सौभा पर मन ललचायौ॥५५ . गोपियों द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया प्रत्युत्तर देखिये सूर के इस पद में : कैसे हमको ब्रजहि पठावत। मन तौ रह्यौ चरन लपटान्यौ, जो इतनी यह देह चलावत। अटकै नैन माधुरी मुसुकति अमृत वचन स्रवननि को भावत। इनको करि लीन्हें, अपने तुम तो क्यों हम नहीं जिय भावत। सूर सैन दे सरबस लुट्यौ, मुरली लै-लै नाम बुलावत॥५६
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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