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________________ के कारण अनियमित रहा करते थे। फलस्वरूप आचार्य वल्लभ ने सूरदास तथा परमानन्ददास को नियमित कीर्तनिये होने के कारण प्रधान पद प्रदान किया। वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग को जनता के सामने लाने में भी सूरदास ने सब से अधिक अपना योगदान दिया। वल्लभाचार्य के बाद गोपीनाथ गद्दी पर बैठे, तब तक यही क्रम चलता रहा। परन्तु संवत् 1602 में विठ्ठलनाथ के गद्दी पर बैठने पर इस कीर्तन प्रणाली को और भी व्यवस्थित तथा व्यापक रूप प्रदान किया गया। उन्होंने श्रीनाथजी की आठों समय की झाँकियों के अलग-अलग कीर्तनकार नियुक्त किए। उनमें सूरदास, परमानन्ददास, कुंभनदास, कृष्णदास ये चार महाप्रभु वल्लभाचार्य के सेवक थे तथा छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, चतुर्भुजदास तथा नन्ददास ये चार गोस्वामी विठ्ठलनाथ के सेवक थे। ये आठों मिलकर "अष्टछाप" कहलाए। "गोस्वामी विठ्ठलनाथ ने संवत् 1601 से 1602 के मध्य अष्टछाप की स्थापना की थी, इसमें सूर प्रमुख थे। 'वार्ता' में लिखा है कि परमप्रभु श्रीनाथजी स्वयं सखाभाव से अष्टछाप कवियों के साथ खेलते थे, इसलिए वे अष्टसखा भी कहे जाते थे।"५० सूरदास का देहावसान : मूल वार्ता में सूरदास के महाप्रयाण का वर्णन अत्यन्त मार्मिकता के साथ विवेचित हुआ है। उसमें लिखा है कि जब सूरदास को श्रीनाथजी की सेवा करतेकरते बहुत दिन बीत गये तो एक दिन उन्होंने यह अनुभव किया कि अब भगवान् की इच्छा मुझे बुलाने की है। यह सोचकर वे श्रीठाकुरजी के नित्यलीलाधाम "पारसौली" आ गये और श्रीगोवर्धननाथजी की ध्वजा को साष्टांग प्रणाम कर अपना मुख उसकी ओर करके एक चबूतरे पर लेट गये। उस समय उन्होंने अपने मन से लौकिक बातों को बिल्कुल निकाल दिया परन्तु उनके मन में गोसाईंजी के दर्शन की अपार अभिलाषा उत्पन्न हुई। जब श्री गोसाईंजी ने श्रीनाथजी का शृंगार किया, उस समय सूरदास को अनुपस्थित देखकर अपने सेवकों से पूछा कि सूरदास कहाँ हैं तो सेवकों द्वारा ज्ञात हुआ कि सूरदास तो मंगल आरती के दर्शन करके तथा सौ सेवकों से भगवत-स्मरण कह "पारसौली" चले गये हैं। इस बात पर गोसाईंजी ने तुरन्त समझ लिया कि अब उनका अवसान सन्निकट है। फलस्वरूप उन्होंने अपने सेवकों को आदेश दिया कि... "पुष्टिमार्ग का जिहाज जाता है, जा को कछु लेना होय सो लेऊ'। कहते हैं कि राजभोग तथा आरती से निवृत्त होकर जब गोसाईंजी गोविन्दस्वामी, चतुर्भुजदास आदि सेवकों के साथ "पारसौली" गये तो वहाँ सूरदास अचेतावस्था में पड़े थे। गोसाईंजी ने उनका हाथ पकड़कर पूछा कैसे हो? तब सूरदास ने उठकर उन्हें दण्डवत् किया तथा कहा कि मैं तो आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। दर्शन देकर आपने मुझे कृतार्थ किया। यह कहकर उन्होंने निम्न पद गाया
SR No.004299
Book TitleJinsenacharya krut Harivansh Puran aur Sursagar me Shreekrishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdayram Vaishnav
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2003
Total Pages412
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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