________________ हरिराय जी के "भावप्रकाश" के अनुसार ये बाल्यावस्था में ही घर से विरक्त होकर चल दिये थे तथा "सीही" से लगभग चार-पाँच मील दूर किसी अन्य गाँव के तालाब के किनारे एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ गये थे। इसी वृक्ष के नीचे अठारह वर्ष की आयु तक वे रहे। आसपास के लोग इन्हें बड़ा प्यार करते थे तथा इनके खानेपीने का प्रबन्ध करते थे तथा कहा जाता है कि जो बातें ये बतलाया करते थे, वे आमतौर पर सत्य निकलती थी। इसी कारण आसपास इनकी ख्याति फैल गई तथा दूर-दूर से भविष्य के विषय में बात पूछने; अनेक लोग इनके पास आने लगे। इनका कण्ठ भी मधुर था। यहाँ वे गाने का अच्छा अभ्यास करते थे तथा इस हेतु एकान्त में बैठकर गाया करते थे। इनका गाना सुनने अनेक लोग जमा हो जाते थे तथा वे इन्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे एवं छोटी आयु होने पर भी बड़ा आदर करते थे। आने वाले लोग इन्हें स्वामीजी कहकर पुकारते थे तथा श्रद्धा व प्रेम से अनेक उपहार देते थे, वही इनके जीवन चलाने के लिए पर्याप्त होता था। कई लोग स्वामीजी के शिष्य बन गये और उनसे दक्षिणा में जो मिला, उससे उनके पास यथेष्ट परिमाण में द्रव्य एकत्रित हो गया। कहा जाता है कि एक दिन रात्रि को सूर ने विचार किया कि वह तो वहाँ फंस कर रह गये। घर से भगवान् की भक्ति को निकले थे तथा उसी के लिए विरक्ति ली थी परन्तु वहाँ माया ने घेर लिया। उन्होंने उसी समय दृढ़ निश्चय किया कि वे तुरन्त उस स्थान को छोड़ देंगे। उस समय उनकी आयु 18 वर्ष थी। . इस प्रकार माया से छुटकारा प्राप्त कर अपने वैराग्य की रक्षा करने हेतु सूर ने एक दिन वह स्थान छोड़ दिया। कहते हैं कि सूर ने वहाँ से जाते कुछ भी साथ में नहीं लिया। जो द्रव्यादि था, वह वहीं छोड़ दिया। यहाँ से चल कर सूर मथुरा आये। मथुरा कृष्ण का * जन्मस्थान था। एक बार मन में फिर प्रलोभन आया परन्तु तुरन्त ही ध्यान आया कि मथुरा भारत का प्रसिद्ध तीर्थस्थान है और यात्रियों के आवागमन के कारण वे मायाजाल से वंचित नहीं रह सकते हैं, ऐसा विचार कर उन्होंने मथुरा में बसना उचित नहीं समझा। एकान्त स्थान की खोज करते ये आगरा तथा मथुरा के निकट गऊघाट पर रहने लगे और यहीं यमुना नदी के किनारे भगवद् भक्ति करने लगे। वे 31 वर्ष की आयु तक यहाँ पर रहे। दीक्षा :___चौरासी वैष्णव की वार्ता के अनुसार संवत् 1567 (वि०) में महाप्रभु वल्लभाचार्य काशी और अडैल (प्रयाग) होते हुए गऊघाट पर रुके थे। उस समय आचार्यजी की ख्याति दूर-दूर तक पहुंच चुकी थी। दक्षिण भारत के साथ ही उत्तर भारत में भी वे मायावाद का खण्डन तथा भक्तिमार्ग की स्थापना कर चुके थे। आचार्यजी से लोगों ने सूर परिणामस्वरूप लोग सूरदासजी को आचार्य के सन्मुख ले गये। सूर से भेंट करते समय - - -