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________________ दिग्दर्शन ] . मानापमानादि तक ही सीमित रहेगा। परन्तु जगत में क्या ऐसा नहीं देखा जाता है कि मनुष्य के अच्छे या बुरे कार्य, विना ही ऐहलौकिक [ पुरस्कार--तिरस्कारादि ] फल के, बिल्कुल तिरोहित भी रहते हैं, रह जाते हैं ? तब ऐसी हालत में वे कार्य बिल्कुल वन्ध्य ही रह जायेंगे ! वस्तुतः अनन्तवैचित्र्यात्मक जगत् कर्मवैचित्र्य-- मूलक ही उपपन्न हो सकता है / सर्वथा निरपराधी मारा जाता है; निरुपद्रव परिस्थिति में भी मनुष्य सहसा भयंकर एक्सीडेन्ट का शिकार बनता है; भिन्न भिन्न व्यक्तियों के समान उद्यम रहते हुए भी और उनकी एक सरीखी तैयारी रहते हुए भी उनकी फलसिद्धि में वैचित्र्य पाया जाता है। उनमें साफल्य-नैष्फल्य का भी महद् अन्तर पड़ जाता है; समान परिस्थिति में पालित-पोषित युग्मजात व्यक्तियों की बुद्धि और स्मरणशक्ति में तीव्र-मन्दताकृत महान भेद नजर आता है;-ऐसा अनेकानेक वैचित्र्य संसार में, हमारे व्यवहार-पथ पर प्रत्यक्ष दीख रहा है, उसकी उपपत्ति के मूल में कर्मवाद का सिद्धान्त ही उपयुक्त होगा। . प्राचीन तत्ववेत्ताओं ने अदृष्टरूप पुण्य--पाप को संसार-गति के चक्ररूप बतलाया है। महात्मा बुद्ध को एक वक्त चलते हुए जब उनके पैर में कांटा चुभा, तब उन्होंने अपने भिक्षुओं से कहाः" इत एकनवतिकल्पे शक्त्या में पुरुषो हतः। तेन कर्मविपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः 18 // " * मैंने इस भव से 91 वें जन्म में एक पुरुष को शक्ति से मारा था, उस कर्म के विपाकोदय से, भिक्षुओ ! मेरे पांव में कांटा चुभ गया।
SR No.004298
Book TitleJain Siddhant Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherBhogilal Dagdusha Jain
Publication Year1937
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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