________________ * [जैनसिद्धान्त[ Soul and Matter ] / और इन्हीं दो तत्वों के, आध्यात्मिक भावना के दृष्टिकोण से नौ भेद किए हैं, जो ' नव तत्त्व ' के नाम से प्रसिद्ध हैं / नौ तत्व ये हैं:-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, बन्ध, निर्जरा और मोक्ष / विद्वान् पाठक देख सकते हैं कि तत्वों का यह उपन्यास कैसा व्यवस्थित, कैसा हृदयग्राही और आध्यात्मिक दृष्टि से कैसा उपयुक्त है / जीव और अजीव तत्व तो प्रसिद्ध हैं / चैतन्यरूप तत्त्व जीव और अचेतन जड़रूप तत्त्व अजीव / अब इन्हीं के विवरणभूत शेष तत्त्वों को जरा देखें। पुण्य-पाप यद्यपि सत्कर्म-दुष्कर्म को कहते हैं, तथापि यहाँ वे खास अधिक अर्थ पर हैं। सत्कर्मजनित पुण्य संस्कार और दुष्कर्मजनित दुष्ट संस्कार [ Crystalised effect ], जो दीर्घकाल तक, जन्मान्तर तक भी आत्मा से लगे रहते हैं, पुण्य-पाप हैं / वे कार्मिकपरमाणुसंघातापन्न द्रव्यरूप हैं और परम सूक्ष्मरूप हैं / क्रिया तो क्षणिक है, वह फलसाधक कैसे हो सकती है ? कहा है:"चिरध्वस्तं फलायालं न कर्मातिशयं विना* / " अत एव क्रियोत्पादित कोई * अतिशय ' या -- अदृष्ट : अथवा -- संस्कार ' प्राचीन दार्शनिकों ने साबित किया है, जो चिरकाल तक, जन्मान्तर तक भी आत्मसम्बद्ध रह कर परिपाक के समय पर आत्मा को अपना फल चखाता है / इस -- अदृष्ट ' अथवा 'कर्म' का अस्तित्व न हो, तब तो मनुष्य--कृति का फल ऐहलौकिक . * उदयनाचार्यविरचित न्यायकुसुमाञ्जलि का श्लोकाध /