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________________ - . 42 * * . [ जैनसिद्धान्तअधमवासना-मूलक हो-नीचस्वार्थ-प्रेरित हो। बाकी, गृहस्थाश्रमोचित कर्तव्य-पालन के अनुसन्धान में, यदि कोई चोर, डाकू, गुंडा या बदमाश आक्रमण करता घुस आवे, तो उस वक्त उसका समुचित सामना करना अवश्य उचित है / उसे कौन निषिद्ध बतलायगा ? उस समय जो मनुष्य अपनी कायरता को छिपाने के लिए अपने को अहिंसा के कृत्रिम प्रावरण से लपेटता है, वह निःसन्देह, अहिंसा भगवती को बदनाम करता है / 'क्षत्रियाः शस्त्रपाणय: दूसरे पर जुल्म गुजारने के लिए नहीं हैं, किन्तु देश की, प्रजा की, न्याय की और दीन-हीन-अनाथ-गरीब-पीडित प्राणिओं की रक्षा के लिए हैं। ऐसे न्यायसम्पन्न, प्रशमाभरणभूतपराक्रमशाली नर-वीरों के शस्त्र प्रहरण-सज्ज कर-कमल गृहस्थाश्रम की दृष्टि से जरूर देश के अलंकाररूप हैं / परन्तु धर्म के नाम पर देव-देवी के आगे और यज्ञादि में जो हिंसाचरण का प्रचलन था और अब भी है, उसको जैन धर्म ने अत्यन्त निन्दित और गर्हित घोषित किया हैं, और साथ ही उस दूषित प्रथा को मिटाने की दिशा में उसकी सतत चलती रही प्रयत्न-परम्परा को बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त हुई है। यह तो सब कोई जानते हैं कि अहिंसा के प्रचारकों में भगवान् महावीर का प्रमुख स्थान है / उनके समकालिक पूज्य महर्षि बुद्ध का भी तत्सम्बन्धी प्रयत्न महान् स्तुत्य और उल्लेखनीय है / परन्तु महात्मा बुद्ध के अवसान के बाद उनका अहिंसा-शासन क्रमशः अधिकाधिक गिरता चला, जब, भगवान् महावीर की संघव्यवस्था और शासनपद्धति इतनी व्यवस्थित थी कि उनकी अविच्छिन्न परम्परा में अहिंसा का शासन खूब ही दृढ़ रहा है। इतना ही नहीं, भगवान महावीर के निर्वाण के बाद भी उनकी अविच्छिन्न और व्यवस्थित पट्ट-परम्परा में आज तक जो प्रभावशाली आचार्य, उपाध्याय और मुनि हुए हैं उनके द्वारा और उनके भक्त नरेशों,
SR No.004298
Book TitleJain Siddhant Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherBhogilal Dagdusha Jain
Publication Year1937
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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