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________________ 38 [जैनसिद्धान्तकी मनुष्य जाति को एक प्रेमसूत्र में संगठित करने का सामर्थ्य रखता है। यही विश्वशान्ति का सूत्रधार है। जहाँ इसका अनादर है उस देश की प्रजा को सुख कहाँ ? शान्ति कहाँ ? वहाँ तो 'मात्स्य ' न्याय अपना अड्डा जमाता है और अशान्ति के भीषण वातावरण में प्रजा तोबा पुकारती है। मुझे यहाँ सूचित करना चाहिए कि अहिंसा का अर्थ कोई कायरता या निर्बलता न करे / जैसे हिंसा के साथ अहिंसा का विरोध है, वैसे, कायरता के साथ भी अहिंसा का विरोध है / अहिंसा कायरों का धर्म नहीं है, वह बहादूर का पवित्र अथ च अमोघ शस्त्र है। दुश्मन या अनिष्टकारी के प्रति भी अपने चित्त में क्रोध की उत्तेजना न होने देना और सज्ञान ( wise ) वृत्ति से अपने मन को काबू में, शान्ति ( equanimity ) में रखना, और, विशेषता में, उसके हितचिन्तक और शुभेच्छक बनना वह साधारण बात नहीं है / सारा संसार-क्या कायर और क्या वीर-अपने विरोधी के प्रति एकदम ही उत्तेजित और अशान्त हो उठता है। यह तो मानस चापल की स्वाभाविक बात है / यह जगतभर का प्रचलित वातावरण है। इस सामान्य जगत्प्रवाह के विरुद्ध जो अन्तःकरण अपने विरोधी के प्रति भी उदार बने-उसके लिए भी शुभचिन्तक बने, वह कितना उच्च, सात्विक, धीर और ज्ञानी होना चाहिए यह सुज्ञ पाठक सोच सकते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अधिक बल किधर अपेक्षित है--हिंसावृत्ति में या अहिंसावृत्ति में ? अच्छा, अब इसका लक्षण भी देखना चाहिए / जैन महर्षि उमास्वाति ने अपने ' तत्वार्थसूत्र ' में हिंसा का लक्षण बतलाया है: "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा।"
SR No.004298
Book TitleJain Siddhant Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNyayavijay
PublisherBhogilal Dagdusha Jain
Publication Year1937
Total Pages50
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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