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________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 63 कहलाया है, जबकि मूर्तिपूजा का विरोध करने वाली लोकाशाह की परंपरा अमूर्तिपूजक कही जाती है / अमूर्तिपूजक लोकागच्छ से १७वीं शताब्दी के लगभग लवजीऋषिजी, धर्मसिंहजी, और धर्मदासजो के नेतृत्व में स्थानकवासी परंपरा विकसित हुई। स्थानकवासो परंपरा से ही १८वीं शताब्दी के लगभग आचार्य भिक्षु के नेतृत्व में तेरापंथ संप्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ है। ये सभी संप्रदाय किस प्रकार उपसंप्रदायों में विभाजित हो गये हैं ? अब हम इसको चर्चा करेंगे। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय : मतिपजक, चैत्यवासो अथवा मन्दिरमार्गी कुछ भी कह लें, जिनप्रतिमा की उपासना करने वाला यह सम्प्रदाय आगे चलकर कई गच्छों में विभाजित हो गया। यह विभाजन चाहे सैद्धान्तिक मतभेदों से हुआ हो, चाहे व्यक्तिगत महत्वकांक्षा इसके लिए उत्तरदायी रही हो, चाहे किसी घटना विशेष या स्थान विशेष के कारण यह हुआ हो, वस्तुस्थिति यह है कि मूर्तिपूजक संप्रदाय अब कई गच्छों में विभाजित हो गया है। इनमें से कुछ गच्छ तो ऐसे हैं जो आज भी अपने अस्तित्व को न केवल बनाए हुए हैं, वरन् उसमें अभिवृद्धि ही कर रहे हैं, किन्तु साथ ही कुछ गच्छ ऐसे भी हैं जो कुछ समय प्रभाव में रहने के पश्चात् लुप्त प्रायः हो गए हैं। अब उनके उल्लेख मात्र हो अवशिष्ट रह गए हैं। यहाँ हम श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय के विभिन्न गच्छों का विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। 1. बृहद् गच्छ : .. बृहद् गच्छ का एक अन्य नाम वडगच्छ भी मिलता है। इस गच्छ का प्राचीनतम अभिलेख 954 ई० का उपलब्ध है जिसमें बृहद् गच्छ के आचार्य परमानन्दसूरि के शिष्य यक्षदेवसूरि का उल्लेख हुआ है। इसके अलावा 1259 ई० से 1502 ई० तक के लगभग 40 अभिलेख और उपलब्ध होते हैं, जिनमें इस गच्छ तथा इसके आचार्यों के नामोल्लेख मिलते हैं। / 1. संवत् 1011 बृहद्गच्छीय श्रीपरमानन्दसूरि शिष्य श्री यक्षदेवसूरिभिः . प्रतिष्ठितं / -लोढा, दौलतसिंह-श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, क्रमांक 331 2. (क) श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, क्रमांक 219, 220, 292 (अ) - (स) विनयसागर-प्रतिष्ठा लेख संग्रह, परिशिष्ट 2, पृ० 226
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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