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________________ जैनधर्म का उद्भव और विकास : 29. 6. ज्येष्ठ कल्प: __चारित्र ( दीक्षा ) में बड़े को ज्येष्ठ कहते हैं और ज्येष्ठ को वंदन करना ज्येष्ठ कल्प है। महावीर की परम्परा में छेदोपस्थापनीय चारित्र ( बड़ी दीक्षा ) के आधार पर ज्येष्ठता का निर्धारण होता है जबकि पार्श्व को परम्परा में सामायिक चारित्र के आधार पर ही साधुओं की ज्येष्ठता का निर्धारण हो जाता था। उनकी मान्यता में बड़ी दीक्षा के आधार पर कोई बड़ा नहीं होता है।' 7. मासकल्प : पार्श्व की परंपरा में श्रमणों के लिए ऐसा कोई नियम नहीं था कि वे चातुर्मास के अतिरिक्त किसी एक स्थान पर एक माह से अधिक नहीं ठहरें, किन्तु महावोर ने अपने श्रमणों के लिये मासकल्प का विधान कर चातुर्मास के अतिरिक्त अन्य समय किसी स्थान पर एक साथ एक माह से अधिक ठहरने का निषेध कर दिया था। 8. पर्युषण कल्प: __ वर्षाकाल में एक स्थान पर रहना पर्युषण कल्प कहलाता है। पार्श्व की परंपरा में श्रमणों के लिए वर्षाकाल में एक ही स्थान पर रहना आवश्यक नहीं था, किन्तु महावीर ने पर्युषण कल्प का विधान कर अपनो परंपरा में रहने वाले श्रमणों को वर्षाकाल (आषाढ़ पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक) में एक ही स्थान पर रहने के स्पष्ट निर्देश दिये थे। 9. राजपिण्ड कल्प: राजा द्वारा प्रदत्त अथवा राजा के लिये बना हुआ भोजन ग्रहण करना राजपिंड है। पार्श्व की परंपरा के श्रमण राजपिण्ड ग्रहण कर * सकते थे, किन्तु महावीर ने अपनी परंपरा में श्रमणों के लिए राजपिण्ड ग्रहण करना निषिद्ध कर दिया था। . पार्श्व और महावीर की मान्यता संबंधी भेदों की जो चर्चा हमने यहां की है उससे ज्ञात होता है कि पार्श्व और महावीर की परंपरा में जो भी 1. पंचाशक (हरिभद्रसूरि), सूत्र 823 2. वही, सूत्र 829 ... 3. वही, सूत्र 832 4. श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग 3, पृ. 237-238
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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