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________________ विभिन्न सम्प्रदायों की श्रावकाचार सम्बन्धी मान्यताएँ : 215 धर्मामृत ने वस्त्र बन्ध पर्यन्त सम्पूर्ण राग-द्वेष और हिंसा आदि पापों का परित्याग कर आत्मा का ध्यान करने को सामायिक कहा है।' प्रचलन में यही देखा गया है कि जैन परम्परा के सभी सम्प्रदायों के श्रावक किसी विशेष आसन में स्थित होकर सामायिक व्रत की साधना करते हैं किन्तु कार्तिकेयानुप्रेक्षा में यह भी कहा है कि पर्यङ्कासन को बांधकर या उस पर सीधे खड़े होकर निश्चित समय तक इन्द्रियों के व्यापार से रहित होकर मन को एकाग्रकर, काया को संकोचकर, हाथ को अंजलि बांध लेना और आत्मस्वरूप में लीन होकर समस्त सावधयोगों का त्याग करना सामायिक है।२ श्रावक चाहे जिस सम्प्रदाय का हो, वह सामायिक की अवस्था में सावध क्रियाओं को त्याग देता हैं तथा मन, वचन और काया की शुद्धि पर ध्यान देता है। सम्प्रदाय की दृष्टि से देखें तो अन्तर यह है कि श्वेताम्बर परम्परा के स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय के श्रावक सामायिक की अवधि में मुखवस्त्रिका मुख पर धारण करते हैं किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के ही मूर्तिपूजक सम्प्रदाय एवं दिगम्बर परम्परा के सभी सम्प्रदायों के श्रावक सामायिक करते समय भी मुखवस्त्रिका धारण नहीं करते हैं, क्योंकि इन सम्प्रदायों में तो श्रमणों के लिए भी मुखवस्त्रिका धारण करने का प्रचलन नहीं है। अतिचार : ___सामायिक व्रत के पाँच अतिचार माने गए हैं। उपासकदशांगसूत्र में मनोदुष्प्रणिधान, वचनदुष्प्रणिधान, कायदुष्प्रणिधान, सामायिक-स्मृतिअकरणता और सामायिक-अनवस्थित-करणता-ये पाँच अतिचार माने गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कायदुष्प्रणिधान, वाग्दुष्प्रणिधान, मनोदुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान-ये पाँच अतिचार स्वीकार किए हैं। रत्न 1. सागार धर्मामृत, 5 / 28 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 354-356 3. तयाणंतरं च णं सामाइयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्या, न समारियव्वा, तं जहा-मणदुप्पणिहाणे, बयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइअकरणया, सामाइयस्स अणवदिव्यस्स करणया। उवासगदसाओ, 1153 4. तत्त्वार्थसूत्र, 28
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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