________________ 8 : जैनधर्म के सम्प्रदाय भावनाएँ भी इसी काल में बलवती होती हैं। जैन परम्परा में यह काल . अतिमहत्वपूर्ण है क्योंकि इस काल में ही ऋषभदेव के अतिरिक्त शेष सभी तेईस तीर्थकर हुए थे। (5) दुःषमा काल: वर्तमान समय को जैन परम्परानुसार दुःषमा काल कहा गया है / इस काल में जलवायु में व्यापक परिवर्तन आ जाता है, कहीं अतिवृष्टि तो कहीं अनावृष्टि होती दिखाई देती है। मनुष्यों की तृष्णा अधिक हो जाती है। परिणामस्वरूप छल-कपट, व्याभिचार आदि दुष्प्रवृत्तियों में वृद्धि होने लगती है। वर्गभेद, वर्णभेद, जातिभेद आदि की प्रचुरता इस काल में दिखाई देती है। परोपकार, सदाचार, सच्चाई, मैत्रीभाव आदि सद्गुणों की अल्पता तथा दुराचार एवं दुगुणों की अधिकता होती है / रोग-शोक, आधि-व्याधि आदि भी इस काल में अधिक होते दिखाई देते हैं। इस प्रकार इस काल में दुःख की मात्रा अधिक और सुख की मात्रा कम हो जाती है। (6) दुःषमा दुःषमा काल : __अवसर्पिणी काल का अन्तिम एवं उत्सपिणी काल का प्रथम काल दुःषमा-दुःषमा काल बतलाया गया है। यह काल दुःख से परिपूर्ण माना गया है। जैन मान्यतानुसार इस काल में जो भी प्राणो बचेंगे, वे असहनीय दुःख-पीड़ा, रोग-शोक, काम-क्रोध, लोभ, भय, मद, अहंकार आदि से प्रसित रहेंगे। सर्वत्र अशान्ति, कलह और पापकों की अधिकता रहेगी। व्यापार, पशुधन, वनस्पति आदि समाप्त हो जाएंगे। __यह काल अवसपिणी काल है। इसके अवसान के पश्चात् पुनः उत्सर्पिणी नामक दूसरे कालचक्र का प्रवर्तन होगा। इस प्रकार विश्व में उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी और अवसर्पिणी-उत्सपिणो यह कालक्रम चलता ही रहेगा। कुलकर: प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल में तीर्थंकरों के जन्म से पूर्व कुलकर उत्पन्न होते हैं / इनका कार्य समाज व्यवस्था और दण्ड व्यवस्था की स्थापना करना होता है। 1. जम्बू स्पप्राप्ति सूत्र, 24