________________ 178 : जैनधर्म के सम्प्रदाय द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम पिंडेषणा अध्ययन में आहार ग्रहण-विधि-निषेध का विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है / ___ श्वेताम्बर परम्परा के श्रमण तुम्बे, लकड़ी अथवा मिट्रो के पात्रों में कई घरों से मधुकरवृत्तिपूर्वक प्रासुक आहार लाते हैं / आहार लाकर श्रमण सर्वप्रथम गुरु के पास जाते हैं और ईपिथिकसूत्र से प्रतिक्रमण करते हैं।' तत्पश्चात् भिक्षा के लिए जाने-आने तथा भिक्षा ग्रहण करने . में लगे समस्त अतिचारों का क्रमशः उपयोगपूर्वक चिन्तन करते हैं और अव्यग्रचित्त से गुरु के समीप आलोचना करते हैं। तथा जिस प्रकार भिक्षा ग्रहण की हो, उसी प्रकार गुरु को निवेदन करते हैं। बाद में वे प्रकाशयुक्त खुले पात्र में, हाथ और मुंह से आहार को नीचे नहीं गिराते हए यत्नपूर्वक भोजन करते हैं तथा भोजन चाहे जैसा भी बना हो, उसे मधु घृत की तरह खाते हैं। दिगम्बर परम्परा के श्रमण श्रावकों के घर भोजन के लिए जाते हैं और वहां प्राप्त हुई निर्दोष भिक्षा को करपात्र (हाथ की अंजली ) में ही ग्रहण करके मौन रहकर खड़े-खड़े वहाँ ही खाते हैं / मलाचार में आहार-ग्रहण-विधि-निषेध का कथन करते हुए कहा है। कि श्रमण न बल के लिए, न आयु के लिए, न स्वाद के लिए, न शरीर की पुष्टि के लिए और न तेज के लिए आहार ग्रहण करे, किन्तु ज्ञान, संयम और ध्यान के लिए आहार ग्रहण करे।' इसी ग्रंथ में आगे यह भी कहा है कि श्रमण नव कोटि से शुद्ध, बियालोस-दोषों से रहित, संयोजना से होन, प्रमाण सहित तथा विधिपूर्वक दिया गया भोजन ही ग्रहण 1. "इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए विहारणाए गमणागमणे / " ..."जे मे जीवा विराहिया""तस्स मिच्छामि दुक्कडं।" -आवश्यकसूत्र, सामायिक अध्ययन, पृ० 13 2. "पडिक्कमामि गोयरग्गचरियाए भिक्खायरियाए"परिभुत्तं वा जं न. परिठ्ठावियं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं / " -आवश्यकसूत्र, प्रतिक्रमण अध्ययन, पृ० 33 3. दशवैकालिकसूत्र, 5 / 200-205 4. वही, 5 / 209-210 5. पद्मपुराण, 4 / 97 6. मूलाचार, माथा 481 . .. .. ..