________________ 272 : जैनधर्म के सम्प्राय अध्ययन में क्षमापना से लाभ का कथन करते हुए कहा है कि क्षमा से जीव आनन्दभाव को प्राप्त करता है और बानन्दभाव से सम्पन्न साधक प्राणी मात्र के प्रति मैत्रीभाव को प्राप्त करता है, जो आत्म विशुद्धि का कारण बनता है। उत्तराध्ययनसूत्र में यह भी कहा है कि साधक क्षमा से परिषहों को जीत लेता है। विरागता : विरागता का अर्थ राग या ममत्व से रहित होना है। विरागता. से साधक स्नेहानुबन्धनों तथा तृष्णानुबन्धनों का विच्छेद कर देता है तथा मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और सचित्त, अचित्त एवं मिश्र द्रव्यों से विरक्त हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो विरागता ही वीतरागता है। मनसमाधारणता: मन का सम्यक प्रकार से नियोजन करना मन समाधारणता है। मन समाधारणता से एकाग्रता और एकाग्रता से ज्ञान की पर्यायें प्रकट होती हैं। ज्ञान पर्यायों की प्राप्ति से सम्यक्त्व को शुद्धि और मिथ्यात्व की 'निर्जरा होती है। बचन समाधारणताः वचन को स्वाध्याय में सम्यक् प्रकार से संलग्न रखना वचन समाधारणता है। वचन समाधारणता से वचन योग्य दर्शन पर्यायों की शुद्धि होती है तथा सुलभबोधित्व की प्राप्ति और दुर्लभबोधित्व का क्षय होता है। काय समाधारणता: काय ( शरीर ) को संयम की शुद्ध प्रवृत्तियों में सम्यक् प्रकार से संलग्न रखना काय समाधारणता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है 1. उत्तराध्ययनसूत्र, 29 / 18 2. "वन्तीए णं परीसहे जिणई" -वही, 2940 3. वही, 29 / 46 4. वही, 29/57 5. वही, 29 / 58