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________________ 6 : जैनधर्म के सम्प्रदाय उत्सपिणी काल : (1) दुःषमा-दुःषमा काल (2) दुःषमा काल (3) दुःषमा-सुषमा काल (4) सुषमा-दुःषमा काल (5) सुषमा काल (6) सुषमा-सुषमा काल (1) सुषमा-सुषमा काल: यह काल सर्वाधिक सुख वाला काल कहा गया है। इस काल में रहने वालों को वाणिज्य, व्यवसाय, खेती, पशुपालन आदि कुछ भी करने को आवश्यकता नहीं पड़ती है। पृथ्वी हरे-भरे वृक्षों से आच्छादित रहती है उनसे मधुर, रसदार तथा स्वास्थ्य एवं शक्तिवर्द्धक फल प्राप्त हो जाते हैं।' जैन शास्त्रों में तो यहां तक कहा गया है कि इस काल में संकल्प मात्र से ही मनोवांछित सामग्री प्राप्त हो जाती थी। हरिवंशपुराण में विविध प्रकार के कल्पवृक्षों का उल्लेख करते हुए यह भी बतलाया गया है कि मनुष्यों की कौन-कौनसी आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार के कल्पवृक्षों से हो जाती थी। इस काल के मनुष्य हष्ट-पुष्ट, रूपवान् तथा अधिक आयु वाले होते हैं। ईर्ष्या,रोग-शोक, आधि-व्याधि का इस काल में सर्वथा अभाव था। अतः यह काल सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। (2) सुषमा काल: ___सुषमा-सुषमा काल की समाप्ति के पश्चात् सुषमा काल प्रारम्भ हाता है / यद्यपि यह काल भी सुखद ही माना गया है तथापि इस काल में सुषमा-सुषमा काल की अपेक्षा सुख की मात्रा में कुछ कमी आ जाती है। कल्पवृक्षों से प्राप्त फल अब उतने मधुर, रसप्रद तथा स्वास्थ्य और शक्तिवर्द्धक नहीं रहते, जितने सुषमा-सुषमा काल में थे। इस काल में भी मनुष्य हष्ट-पुष्ट एवं रूपवान् तो होते हैं, किन्तु सुषमा-सुषमा काल. को अपेक्षाकृत कम / इस काल में भी ईर्ष्या, रोग-शोक, आधि-व्याधि आदि. का अभाव माना गया है। 1. तिलोयपण्णत्ति, 4 / 341 2. हरिवंशपुराण, 780-99
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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