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________________ विभिन्न सम्प्रदायों की दर्शन संबंधी मान्यताएँ : 151 इस प्रकार केवलीभुक्ति के संदर्भ में दिगम्बर परम्परा में एक ओर पूज्यपाद ने सवार्थसिद्धि में, पुष्पदन्त ने षट्खण्डागम में एवं नेमिचंद्र ने गोम्मटसार में एकेन्द्रिय से लेकर सयोगी केवली पर्यन्त सभी जीवों को अहारक माना है, वहीं दूसरी ओर दिगम्बर परम्परा के हो आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा बोधपाहुड में केवलीभुक्ति का निषेध किया गया है। एक ही परम्परा के विविध आचार्यों के परस्पर विरोधी मतों में समन्वय करने को दृष्टि से ही षट्खण्डागम के धवला टीकाकार वीरसेन ( १०वीं शताब्दी) ने यह प्रतिपादन किया कि केवली कवलाहार का त्यागकर नोकर्माहार करता है।' वस्तुतः दिगम्बर आचार्यों की मतभिन्नता में समन्वय करने हेतु ही धवलाटीकाकार ने सर्वप्रथम आहार के 6 भेद किये-(१) कर्माहार, (2) नोकर्माहार, (3) कवलाहार, (4) लेपाहार, (5) ओजाहार और (6) मानसिकाहार / धवला टीकाकार ने आहार के ये 6 भेद करके यह कह दिया कि केवली नोकर्माहार करते हैं। नोकर्माहार का तात्पर्य उस आहार से है जो शरीर में प्रक्षिप्त नहीं किया जाता है वरन् शरीर ही ग्रहण योग्य पुद्गलों को स्वतः ग्रहीत करता रहता है / ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर परम्परा ने भी केवलो का आहार प्रत्यक्ष नहीं माना है। समवायांगसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि केवलो का आहार चर्मचक्षओं से दिखाई नहीं देता है। इससे तो यही फलित होता है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के आचार्यों में केवली के आहार को लेकर जो मतभेद दिखाई देता है वह आहार के प्रकार को लेकर है। जहाँ श्वेताम्बर कवलाहार (प्रक्षेपाहार) मानते हैं, वहीं दिगम्बर नोकर्माहार मानते हैं। स्त्रीमुक्ति की तरह ही दिगम्बर परम्परा के केवलोभक्ति निषेधक तर्कों का प्रत्युत्तर भी श्वेताम्बर परम्परा ने नहीं, अपितु अचेलता की समर्थक यापनीय परम्परा ने दिया है। यापनीय आचार्य शाकटायन (९वीं शताब्दी) ने "स्त्रीमुक्तिप्रकरण" की तरह "केवलीभुक्ति प्रकरण" नामक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना करके केवलीभुक्ति का समर्थन किया है। शाकटायन के अनुसार केवली में भुक्ति के कारण पर्याप्ति (इन्द्रियों की पूर्णता) वेदनीय कर्म, तैजस शरीर और दीर्घ आयु विद्यमान रहते हैं / 1. "अत्र केवल लेपोष्ममनः कर्माहारान् परित्यज्य नोकर्माहारो।" -षट्खण्डागम, सूत्र 1 / 1 / 176-177 को धवला टोका 2. "अस्ति च केवलीभुक्तिः समग्रहेतुर्यथा पुरामुक्तेः / पर्याप्ति-वेद्य-तैजस-दीर्घायुष्कोदयो हेतुः // "" -केवलोभुक्ति प्रकरण, श्लोक 1; धाकटायन-व्याकरण, पृष्ठ 125
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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