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________________ 146 : जैनधर्म के सम्प्रदाय हो? इससे ऐसा लगता है कि स्त्री मुक्ति का निषेध तभी आवश्यक हो गया था, जब अचेलता को ही एकमात्र मोक्षमार्ग मान लिया गया। हमें यह कहने में संकोच नहीं है कि अचेलता के एकान्त आग्रह ने हो दिगम्बर परम्परा में इस अवधारणा को जन्म दिया कि स्त्रो नग्न नहीं हो सकतो इसलिए वह मुक्त नहीं हो सकती। इसी आग्रह के कारण गृहस्थलिंगसिद्ध और अन्यलिंगसिद्ध ( सग्रन्थ ) की मुक्ति के निषेध की अवधारणा भो सामने आई। आगे चलकर जब स्त्री को मोक्ष से अयोग्य बताने के लिए तर्क आवश्यक हुए तो यह कहा गया कि चाहे स्त्री दर्शन से शुद्ध हो तथा मोक्षमार्ग से युक्त होकर घोर चारित्र का पालन कर रही हो तो भो उसे प्रव्रज्या नहीं दी जा सकती। जब प्रव्रज्या ( दीक्षा) को अचेलता ( नग्नता ) से जोड़ दिया गया तो कुन्दकुन्द ने ही सर्वप्रथम स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादन किया कि जो सवस्त्रलिंग है, वह श्रावकों का है। कुन्दकुन्द के इस कथन से ऐसा लगता है कि उनके पूर्व अचेल परम्परा में भी स्त्रो को दीक्षा दी जाती थी तथा उसे महाव्रतों का आरोपण कराया जाता था। वस्तुतः कुन्दकुन्द ही ऐसे प्रथम आचार्य प्रतीत होते हैं, जिन्होंने स्पष्ट रूप से स्त्री प्रव्रज्या का निषेध किया था। यहाँ.यह स्मरणीय है कि कुन्दकुन्द ने भी जो तर्क प्रस्तुत किये हैं, वे स्त्री की प्रव्रज्या के निषेध के हैं, स्त्री मुक्ति निषेध के नहीं। किन्तु स्त्री मुक्ति निषेध तो उनके पूर्वोक्त कथन में अनिवार्य रूप से फलित हो रहा है, क्योंकि जब अचेलता ही मोक्षमार्ग है और स्त्री के लिए अचेलता संभव नहीं है तो उसके लिए न तो प्रव्रज्या संभव है और न ही मुक्ति / स्त्री मुक्ति निषेधक कुन्दकुन्द के तर्कों का सर्वप्रथम खण्डन संभवतः यापनीय परम्परा के यापनीयतन्त्र नामक ग्रन्थ में दिया गया है। वर्तमान में यह ग्रन्थ अनुपलब्ध है किन्तु इसका वह अंश जिसमें स्त्री मुक्ति का समर्थन किया गया है, हरिभद्र के ललितविस्तरा में उद्धृत होने से सुरक्षित है। उसमें कहा गया है कि स्त्री अजीब नहीं है, न वह अभव्य है, न दर्शन विराधक है, न अमनुष्य है, न अनादि क्षेत्र में उत्पन्न है, न असंख्यात आयुष्यवाली है, न अतिक्रू रमति है, न उपशान्त मोह है, न अशुद्धाचारी है, न अशुद्धशरीरा है, न वर्जित व्यवसाय वाली है, न अपूर्वकरण की विरोधी है, न नवें गुणस्थान से रहित है, न अयोगलब्धि से रहित है, 5. सूत्रपाहुड, गाथा 24 2. ललितविस्तरा, 10 57
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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