________________ विभिन्न सम्प्रदायों को दर्शन संबंधी मान्यताएं : 139. और दिगम्बर परम्परा में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु इनमें से कितनी पुण्य प्रकृतियां हैं और कितनी पाप प्रकृतियां हैं, इस सन्दर्भ में दोनों परंपराओं में मतभेद है। यद्यपि श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराएँ इस संदर्भ में विशेष मतभेद नहीं रखती हैं, किन्तु यापनीय परंपरा के ग्रन्थ भगवती आराधना में निम्न चार प्रकृतियों को पुण्य प्रकृति कहा है' (1) सातावेदनीय, (2) शुभ आय, (3) शुभ नाम और (4) शुभगोत्र / श्वेताम्बर आचार्य सिद्धसेणगणी ने अपने तत्त्वार्थभाष्य को वृत्ति में लिखा है कि ये चार पुण्य प्रकृतियाँ हैं, ऐसा अन्य कोई तो नहीं मानता, यह आचार्य (उमास्वाति) की अपनी कोई मान्यता होगी। किन्तु हम देखते हैं कि उमास्वाति को इस मान्यता का समर्थन भगवतो आराधना में मिलता है। इस आधार पर कह सकते हैं कि यापनोय परंपरा इन्हें पुण्य प्रकृतियां मान रही थी। ___ भगवती आराधना और तत्त्वार्थसूत्र में उल्लिखित पुण्य प्रकृतियों को यह मान्यता श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में मान्य नहीं है। अतः जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों को दार्शनिक मान्यताओं में मतभेद की दृष्टि से यह समस्या महत्त्वपूर्ण है / परमात्मा: , “परमात्मा" शब्द से सर्वोत्तम आत्मा का बोध होता है। चार्वाक और बौद्धों के अतिरिक्त प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने किसी न किसी रूप में आत्मा की सत्ता को स्वीकारा है। जेन आगमों, सिद्धान्त ग्रन्थों, दार्शनिक ग्रन्थों एवं स्तुतिपरक काव्यों आदि में कृतकृत्य, निराकुल, मोहादि से रहित, केवलज्ञान के गुणों से युक्त, मोक्ष रूपी परमपद को प्राप्त आत्मा को परमात्मा कहा गया है / * जैनधर्म में परमात्मा को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतरागो, केवलज्ञानी, शुद्धात्मा आदि अनेक नामों से संबोधित किया गया है। परमात्मा वस्तुतः आत्मा की वह शुद्धतम अवस्था है, जब समस्त कर्मों एवं उनके बंधनों का क्षय हो जाता है / इस दृष्टि से जैन परम्परानुसार परमात्मा एक न होकर अनेक हैं / प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने को सामर्थ्य है / 1. (क) भगवती आराधना, गाथा 1828 की टोका, पृष्ठ 814 .. (ख) तत्त्वार्थसूत्र, 8 / 26 ... 2. तत्त्वार्थभाष्य 8 / 26.......... .. ...... .. .