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________________ 134 : जैनधर्म के सम्प्रदाय म्बर परम्परा का दृष्टिकोण षट्जीवनिकाय में पांच स्थावर और एक अस का रहा है। षट्खण्डागम नामक यापनीय ग्रंथ की टीका में इन दोनों दृष्टिकोणों का समन्वय करने का प्रयत्न किया गया है और यह कहा है कि उस और स्थावर नामकर्म की अपेक्षा से तो पांच स्थावर और एक त्रस ही कहे गये हैं, किन्तु व्यवहार में गति की दृष्टि से तोन त्रस और तीन स्थावर भी माने जा सकते हैं।' __ इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा में त्रस और स्थावर जीवों के वर्गीकरण की मान्यता को देखने से ज्ञात होता है कि दोनों ही परंपराओं में दोनों प्रकार के दृष्टिकोण हैं। जगत की अवधारणा सम्बन्धी मतभेद : जगत के प्रति भिन्न-भिन्न दर्शनों का दृष्टिकोण भी भिन्न-भिन्न है। कोई ईश्वर को इसका रचियता मानता है तो कोई प्रकृति-पुरुष के संसर्ग से सृष्टि की रचना होना मानते हैं। इसी प्रकार कोई जागतिक तत्त्वों को शाश्वत मानते हैं तो कोई क्षणिक, इस प्रकार जगत के विषय में विभिन्न दर्शनों को अपनी-अपनी मान्यताएं हैं। जैन दर्शन को जगत के विषय में अपनी एक विशिष्ट अवधारणा है। संसार व्यवस्था के लिए उसने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-इन छह द्रव्यों का सद्भाव माना है। इन छह द्रव्यों को जैन दर्शन में लोक कहा गया है। दूसरे शब्दों में कहें तो जहां छह द्रव्यों का सद्भाव पाया जाता है, वही लोक है। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक सत् वस्तु प्रतिक्षण परिणमन करती है। एक पर्याय को छोड़कर वह दूसरी पर्याय को प्राप्त करती है। इस पर्याय परिवर्तन को माने बिना जगत को कल्पना संभव नहीं है / षद्रव्यात्मक यह जगत तीन भागों में बंटा हुआ है।-(१) अधोलोक, (2) मध्यलोक और (3) ऊर्ध्वलोक / अधोलोक: अधोलोक में सात पृथ्वियाँ हैं-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धुमप्रभा, तमःप्रभा और महाप्रभा, इन्हें सात नरकभूमियाँ भी 1. षट्खण्डागम, खण्ड 5, भाग 1, 2, 3, पुस्तक 13, पृ० 365 2. तिलोयपण्णत्ति, 1111134 3. वही, 1111136
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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