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________________ चतुर्थ अध्याय विभिन्न सम्प्रदायों को दर्शन संबंधी मान्यताएँ वर्शन शब्द का अर्थ: दर्शन शब्द "देश" (देखना) धातु से करण अर्थ में "ल्युट" प्रत्यय लगाकर बना है। इसका अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाए। इस प्रकार जिसके द्वारा जीवन एवं जगत् के यथार्थ स्वरूप को जानने एवं समझने का प्रयत्न किया जाता है, वह दर्शन है। - "दृश्यतेऽनेनेति दर्शनम्" या "दृश्यते ज्ञायतेऽनेनेति दर्शनमित्यु 'च्यमाने"' अर्थात् जिसके द्वारा देखा जाए, जाना जाए, उसे दर्शन कहते हैं। यह दर्शन की अनुभूति सापेक्ष परिभाषा है। दर्शन का सीधा और -सरल अर्थ है-साक्षात्कार करना अर्थात् वस्तु स्वरूप का बोध करना। जैन विचारकों के अनुसार दर्शन वस्तुस्वरूप को चिन्तन निरपेक्ष अनुभूति है। दूसरे शब्दों में वह सत्यानुभूति या सत्य का साक्षात्कार है / - अपने इस अर्थ में 'दर्शन' में विरोध, विवाद एवं मतभेद का कोई -स्थान नहीं है किन्तु जब दर्शन दृष्टिकोण बन जाता है तथा मत या सम्प्रदाय का रूप धारण कर लेता है तो उसमें विरोध दिखाई देता है। - जैन परम्परा में दर्शन शब्द का प्रयोग विभिन्न अर्थों में हुआ है। आचारांगसूत्र जैसे अति प्रचीन ग्रन्थ में दर्शन शब्द सामान्यतया अनुभूति या अपरोक्षानुभूति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। वहाँ ऐन्द्रिक अनुभूतियों अथवा आत्मानुभूति को दर्शन कहा गया है। जैन कर्मसिद्धांत में दर्शन शब्द का प्रयोग आज भो अनुभूति के अर्थ में ही किया जाता है / किन्तु आगे चलकर जैन परम्परा में दर्शन शब्द का यह प्राचोन अर्थ उपेक्षित होता गया और दृष्टि (दिट्ठी) या दृष्टिकोण ( View point) बन गया। दृष्टि का तात्पर्य जीवन और जगत के सम्बन्ध में व्यक्ति के दृष्टिकोण से माना गया है। 1. षड्दर्शनसमुच्चयः हरिभद्रसूरि, पृ० 2 / 18, उधत-नेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग 2, पृ० 405-406
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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