________________ 914 : जैनधर्म के सम्प्रदाय इस गण का उल्लेख यापनीय सम्प्रदाय के साथ हआ हो। इस गण को उत्पत्ति संबंधी भी कोई जानकारी ज्ञात नहीं है। देवरहल्लि (देवालपुर) में पटेल कृष्णय्य के ताम्रपत्रों पर लिखित 776 ई० के एक लेख में श्रीमूलमूलगण का उल्लेख मिलता है। इस लेख से यह भो ज्ञात होता है कि इस गण में एरेगित्तुरगण और पुलिकल गच्छ भो था। इस लेख में इस गण की आचार्य परम्परा इस प्रकार उल्लिखित है-चन्द्रनन्दो, कोतिनन्दी और विमलनन्दी। .. प्रो० गुलाबचन्द्र चौधरी की यह मान्यता है कि यापनीय संघ कई . गणों में विभक्त था, इनमें कनकोपलसम्भूतवृक्षमूलगण, श्रीमूलमूलगण तथा पुन्नागवृक्षमूलगण आदि प्रमुख थे। इस गण की उत्पत्ति एवं मान्यता संबंधी विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है / 3. पुन्नागवृक्षमूलगण : यापनीय सम्प्रदाय के विविध गणों में सर्वाधिक समय तक अस्तित्व में रहने वाले इस गण का प्राचीनतम उल्लेख 812 ई० के एक अभिलेख में हुआ है। कडब के इस अभिलेख में इस गण के आचार्यों की परम्परा इस प्रकार उल्लिखित है-श्रो कित्याचार्य, श्री कुविलाचार्य, श्री विजयकीर्ति और श्री अर्ककोति / इस अभिलेख को विशेषता यह है कि इसमें यापनीय संघ के पुन्नागवृक्षालगण तथा कित्याचार्य अन्वय का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। इसके अतिरिक्त 1020 ई०; 1028 ई०, 1108 ई. तथा 1155 ई. के चार अन्य अभिलेखों में इस गण के आचार्यों एवं आर्यिकाओं के नाम भी उल्लिखित हैं। __ इस गण का उल्लेख करने वाला अन्तिम अभिलेख 1394 ई० का 1. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, क्रमांक 121 2. उद्धृत--जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय, पृ० 34 3. "श्री यापनीयनन्दीसंघपुन्नागवृक्षमूलगणे श्री कित्याचार्यअन्वये" -जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, क्रमांक 124 4. (क) Journal of Bombay Historical Society, Vol. 3, p. 120 उद्धृत-अनेकान्त, वर्ष 28, किरण 1, पृ० 248 (ख) साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शन्स, खण्ड 12, नं. 65, मनास 1940 (ग) जैन शिलालेख संग्रह, भाग 2, क्रमांक 250 (घ) वही, भाग 4, क्रमांक 260