________________ पाइगुण्यसमुद्देशः 163 (उदासीन मध्यम-विजिगीषु-अरि-मित्र-पाणिग्राह-आक्रन्द-आसार अन्तर्धयो यथासंभवगुणविभवतारतम्यान्मण्डलानामधिष्ठातारः // 20 // ) ___ उदासीन, मध्यम, विजिगीषु, अरि, मित्र, पाणिग्राह, आनन्द, आसार और अन्तधि ये यथासंभव गुण और ऐश्वयं के अनुपात से राजमण्डल के अधिष्ठाता होते हैं। . (अप्रतः पृष्ठतः कोणे वा सनिकृष्टे वा मण्डले स्थितो मध्यमादीनां विग्रहीतानां निग्रहे संहितानामनुग्रहे समर्थोऽपि केनचित् कारणेनान्यस्मिन् भूपतौ विजिगीषुमाणे य उदास्ते स उदासीनः // 21 // राजमहल में जो प्रधान राजा के आगे पीछे किसी कोने में अथवा अत्यन्त समीप स्थित होकर मध्यम' आदि युद्ध करनेवालों को रोकने में और युद्ध के लिये सुसंगठितों को युद्ध का आदेश देने में समर्थ होते हुए भी किसी कारण-वश जो दूसरे जय के इच्छुक राजा के प्रति उपेक्षा करता है उसे 'उदा. सीम' कहते हैं।) ( उदासीनवदनियतमण्डलोऽपरभूपापेक्षया समधिकवलोऽपि कुतश्चित कारणादन्यस्मिन् नृपतौ विजिगीषुमाणे यो मध्यस्थभावमवलम्बते स मध्यस्थः // 32 // .. उदासीन के समान ही जिसकी आगे पीछे अथवा कोने में स्थिति निश्चित न हो तथा अन्य राजाओं की अपेक्षा अधिक बलशाली होकर भी जो किसी कारणवश अन्य विजयाभिलाषी राजा के प्रति मध्यमवृत्ति अर्थात् न शत्रु न , मित्र का व्यवहार करे वह 'मध्यस्थ' हैं / ) राजात्मदैवद्रव्यप्रकृतिसम्पन्नो नवविक्रमयोरधिष्ठानं विजिगीषुः // 23 // जिसका राज्याभिषेक हो चुका हो, और जिसको प्राक्तन शुभकमों का भोग प्राप्त हो, ऐश्वर्य और अमात्य आदि से जो सम्पन्न हो और जिसमें नीति तथा पराक्रम का वास हो ऐसा राजा 'विजिगीषु' कहा गया है। . ये एव स्वस्याहितानुष्ठानेन प्रातिकूल्यमियति स एवारिः // 24 // जो अपने आत्मीय का अपकार करके प्रतिकूलता को प्राप्त कर ले वह 'अरि' है। (मित्रलक्षणमुक्तमेव पुरस्तात् // 25 // मित्र समुद्देश्य में मित्र का लक्षण कहा जा चुका है। यो विजिगीषौ प्रस्थितेऽपि प्रतिष्ठमाने वा पश्चात् कोपं जनयति स पाणिग्राहः // 26 // शत्रु पर विजय प्राप्त करने की इच्छा से प्रस्थान किये हुए या करते हुए