________________ नीतिवाक्यामृतम् ब्राह्मण, क्षत्रिय और अपने सम्बन्धी को अधिकारयुक्त पद नह देना चाहिए। (ब्राह्मणो जाति-वशासिद्धमप्यर्थं कृच्छण प्रयच्छति न प्रयच्छति वा / / 23 / ) ब्राह्मण जातिगत स्वभाव के कारण प्राप्त धन को भी कठिनाईपूर्वक देता है अथवा नहीं भी देता। क्षत्रियोऽनियुक्तः खड्गं दर्शयति // 24 / / क्षत्रिय को अधिकारी बनाने पर वह तलवार दिखाता है / अर्थात् उसने यदि गबन किया और राजा ने दण्ड देना चाहा तो वह राजा को ही मार डालना चाहेगा।) . ज्ञातिभावेनातिक्रम्य बन्धुः सामवायिकान् सर्वमप्यर्थ ग्रसते // 22 // राजा यदि अपने किसी बन्धु-बान्धव अथवा सम्बन्धी को अधिकारी बनाता है तो वह अन्य समस्त अधिकारियों को "मैं राजा का सम्बन्धी हैं। इस प्रकार के प्रभाव से प्रभावित कर सर्वाधिकार ले लेता है और धन को हड़प जाता है / सम्बन्ध के तीन भेद(सम्बन्धस्त्रिविधः श्रौतो मौखो यौनश्चेति / / 26 // .. श्रोत, मोख और योन भेद से सम्बन्ध तीन प्रकार का है।) / सहदीक्षितः सहाध्यायी वा श्रोतः // 27 // किसी गुरु महात्मा आदि से साथ-साथ दीक्षा ली हो अथवा साथ-साथ पढ़ा हो तो वह सम्बन्ध श्रोत है। / मुखेन परिज्ञातो मौखः // 28 // बातचीत में जिससे सम्बन्ध स्थापित हुआ हो वह मौख सम्बन्ध है। योनेर्जातो यौनः // 26 // एक ही माता के उदर से उत्पन्न होने पर योन सम्बन्ध होता है / वाचिकसम्बन्धे नास्ति सम्बन्धान्तरानुवृत्तिः // 30 // बातचीत के माध्यम से समुत्पन्न सम्बन्ध में अन्य योन आदि सम्बन्ध की अपेक्षा नहीं होती। अधिकारी की नियुक्ति के समय विचार योग्य बातेंन तं कमप्यधिकुर्यात् सत्यपराधे यमुपहत्यानुशयीत // 31 // ऐसे किसी भी व्यक्ति की अधिकारी न बनावे. जिसे कारणवश दण्ड देने पर पश्चात्ताप करना पड़े या हो।)