________________ प्रस्तावना चान्द्र-व्याकरण के प्रणेता चन्द्रगोमि ने अपने व्याकरण-सूत्रों पर स्वयं ही वृत्ति भी लिखी है जिसको लीबिश ने चान्द्र-व्याकरण के दूसरे संस्करण में सर्वप्रथम मुद्रित कराया था। वृत्ति को 'नमो वागोश्वरायके साथ प्रारम्भ करते हुये, लेखक ने अपने व्याकरण को 'शब्दलक्षण' की संज्ञा दी है और उसकी विशेषता तीन शब्दों में बतलाई हैं; ये शब्द हैं-लघु, विस्पष्ट तथा सम्पूर्ण' / श्रीयुधिष्ठिर' मीमांसक ने इन तीनों विशेषणों पर विचार करते हुये लिखा है कि "कातन्त्रव्याकरण लघु और विस्पष्ट है, परन्तु सम्पूर्ण नहीं है। इस के मूलग्रंथ में कृत्प्रकरण का समावेश नहीं है, अन्यत्र भी कई आवश्यक बातें छोड़ दी हैं.। पाणिनीय व्याकरण सम्पूर्ण तो है, परन्तु महान् है, लधु नहीं।" अतः उनके अनुसार संभवतः इन्हीं दोनों प्रचलित व्याकरणों के गुणों को ग्रहण करके, यह व्याकरण रचा गया प्रतीत होता है / परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि देश के जिस भाग (बंगाल) में चान्द्र-व्याकरण दो-तीन सौ वर्ष पहले तक लोकप्रिय रहा, उसमें भी इसकी कोई हस्तलिखित प्रति न मिली, अपितु उसको नष्ट होने से बचाने का श्रेय तिब्बत' को प्राप्त हुआ / इस आश्चर्य की वृद्धि तब और भी हो जाती है, जब तिब्बत में कलापसूत्र, कलापसूत्रवृत्ति तथा कलापसूत्रलघुवृत्ति के तिब्बती अनुवादों के रूप में कातंत्रव्याकरण' का ही प्रचार अधिक हुआ बताया जाता है। उक्त दोनों व्याकरणों के तिब्बती सहास्तित्त्व में एक अन्य विस्मयकारी बात यह है कि चान्द्र-व्याकरण के सूत्र पाणिनि के सूत्रों से इतने अधिक मिलते हैं कि प्रथम को द्वितीय का ही संशोधित तथा वधित संस्करण" कहा जाता है, जब कि 1. सिद्धं प्रणम्य सर्वज्ञ सर्वीयं जगतो गुरुम् / लघुविस्पष्टसंपूर्णमुच्यते शब्दलक्षणम् // 2. संस्कृत-व्याकरणशास्त्र का इतिहास, पृ० 506 / 3. प्रो० क्षि. चं. चटर्जी, चान्द्रव्याकरण पाव चन्द्रगोमिन की भूमिका / 4. देखिये शीफनेर का लेख, बुलेटिन पाव हिस्टारिकल साइंसेज प्राव द इंपीरियल अकेडमी प्राव साइंसिज़ एट सेंट-पीटर्सवर्ग 4, 264 संख्या 2604 / 5. देखिये युधिष्ठिर मीमांसक, सं० या० इति०, पृ० 502 / 6. ए. सी. बर्नेल-दि ऐन्द्रस्कूल भाव संस्कृत ग्रामर, पृ० 56 / 7. क्षि० चं० चटर्जी, भूमिका चांद्र-व्याकरण भाव चंद्रगोमिन /