________________ संचालकीय वक्तव्य प्रस्तुत चान्द्र-व्याकरण प्राचार्य चन्द्रगोमि की कृति माना जाता है। प्रो. क्षितीशचन्द्र चटर्जी के शब्दों में, चान्द्र-व्याकरण वस्तुतः पाणिनीय व्याकरण का ही एक संशोधित संस्करण है जिसमें कात्यायन और पतञ्जलि के समस्त सुझावों तथा सुधारों का समावेश किया गया है / यों तो इस व्याकरण का उल्लेख अनेक . प्राचीन ग्रंथों में पाया जाता रहा है, परन्तु स्वयं यह ग्रंथ अप्राप्य ही था / तारानाथ से अवश्य इस ग्रंथ के तिब्बती संस्करण का पता चला था, परन्तु सर्वप्रथम इसको प्रकाशित करने का श्रेय प्रोफेसर लिविश को है जिन्होंने इसे रोमन-लिपि में मुद्रित करवा कर दो संस्करणों में निकाला था। ये दोनों संस्करण भी बहुत दिनों से अप्राप्य थे; इसीलिए इस प्रतिष्ठान के भूतपूर्व संचालक, प्राचार्य जिनविजयजी ने, सुप्रसिद्ध विद्वान् पं० बेचरदासजी द्वारा संपादित करवा कर, इस ग्रंथ को देवनागरी-लिपि में पुनः प्रकाशित करने का संकल्प किया, और तदनुसार 1952 ई० में यह कार्य प्रारम्भ भी कर दिया गया, परन्तु खेद है कि कुछ कारणों से इसका प्रकाशन पिछले पंद्रह वर्षों से अटका पड़ा हुआ है। अत्यधिक विलंब के लिए क्षमा चाहते हुये, अब यह पुस्तक विद्वानों की सेवा में प्रस्तुत की जा रही है। ... यद्यपि इस पुस्तक का मुद्रण-कार्य प्रारम्भ होने के पश्चात् डेकन कालेज, पूना से प्रोफेसर क्षितीशचन्द्र चटर्जी के संपादन में इस ग्रंथ का एक देवनागरीसंस्करण 1653 ई० में प्रकाशित भी हो गया है, परन्तु फिर भी इस ग्रंथ की अपनी निजी विशेषता है। प्रस्तुत संस्करण अपनी लघुता में ही महत्ता छिपाये हुये है ; लगभग सवा सौ पृष्ठों में न केवल चान्द्र-व्याकरण के सभी सूत्र हैं, अपितु उनमें उणादि सूत्रों तथा धातुपाठ का भी समावेश कर दिया गया है और साथ में, तुलनात्मक अध्ययन की सुविधा के लिए, चान्द्रसूत्रों के साथ ही पाणिनि. सूत्रों का भी संदर्भ-निर्देश दे दिया है। परिशिष्ट में, अकारादिक्रम से सूत्रों, शब्दों और धातुओं की सूचियां देकर, ग्रंथ को शोधकर्ताओं के लिए और भी अधिक उपयोगी बनाया गया है / अन्त में उस विचार-सामग्री को भी इस संस्करण की ही विशेषता के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जो सम्पादक तथा प्रधान सम्पादक की ओर से प्रस्तावना में उपस्थित की गई है। -फतहसिंह