________________ 14] . - चान्द्रव्याकरणम् [अ० 1, पा० 4, सू० 121-148 . 121 गुधि-वञ्चेः प्रलम्भने / 135 रमो वि-आडोश्च / पा०१।३।८३। पा०१।३।६। 136 उपात् / पा०१३।४। 122 लियः पूजा-अभिभवयोश्च / 137 अव्याप्याद् वा / पा०१।३।८५। पा०१।३७०। 138 अणौ चित्तवत्कर्तृकाद् णेः / 123 मिथ्यायोगे कृषः अभ्यासे / पा०१।३।८८,८६॥ पा०१॥३७१। 136 चलन-आहारार्थात् / पा०१।३।८७॥ 124 फलवति / पा०१॥३७२॥ 140 पृ-दु-नु-बुध-युध-इङ-नश-जनः / 125 पाठे विभाषितात् / पा०१।३।७२। पा०१॥३॥८६॥ 126 जितः / पा०१।३।७२। 141 न पा-दम-आयम-आयस-परिमुह१२७ अपवदः / पा०१।३।७३। अत्ति-रुचि-नृति-धेट्-वर-वसः / 128 सम्-उद्-आङभ्यो यमः अग्रन्थे / पा०१३॥८६+वा०१ .. पा०११३७५॥ तथा काशिका 1 / 3 / 87 // . 126 अप्रादेशः / पा०१॥३७६। 142 वा क्यषः / पा०१॥३॥६०। 130 शब्दान्तरगतौ वा / पा०१॥३७७। 143 युद्भयो लुङि / पा०१।३।६१। 131 न अनु-पराभ्यां कृषः / 144 वृद्भयः स्य-सनोः / पा०१॥३॥१२॥ पा० 11376,78 / 145 लुटि क्लुपः / पा०१।३।६३। 132 प्रति-अति-अभीनां क्षिपः / 146 युष्मदि मध्यमत्रयम् / पा०१।४।१०५,१०१॥ 133 प्राद् वहः / पा०१॥३॥८॥ 147 अस्मदि उत्तमम् / पा०१।४।१०७। 134 परेर्मुषश्च / पा०१।३।८२ तथा 148 एक-द्वि-बहुषु / काशिका 1 / 3 / 82 // पा०१।४।१०२। पा०१।४।२१,२२॥ [प्रथमस्य अध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः] . [चान्द्रे व्याकरणे प्रथमः अध्यायः समाप्तः] पा०१॥३॥०