________________ / 17 / समावेश हो सकता था। इंद्र द्वारा सूक्ष्मवाक् की व्याकृति का उल्लेख हो चुका है। इसी के एक लघुरूप का उख्लेख वा० सं० 16, 77 में है जहाँ प्रजापति' को सत्य एवं अनृत का व्याकरण करने वाला कहा गया है और इसी के अन्य रूप का निरूपण वाक् के एकपदी से नवपदी अथवा एकाक्षरा से सहस्राक्षरा होने में देखा जा सकता है / शिक्षा, प्रातिशाख्य और निरुक्त में इसी लघुरूप की स्थूलतम अवस्था मानी जा सकती है, परन्तु जब धातु, प्रातिपदिक, नामाख्यात के साथ-साथ लिङ्ग, वचन, विभक्ति, प्रत्यय, उपसर्ग, निपात, विकार आदि पारिभाषिक शब्दों का उल्लेख होने लगा तो निस्संदेह व्याकरण की उक्त लघुता पूर्णतया गुरुता में बदल गई और उसका विषय वर्णों की उत्पत्ति अथवा पदों की साधारण व्युत्पत्ति तक सीमित न रहकर वाक्य में विभिन्न शब्दों के पारस्परिक सम्बन्ध पर आधारित अनेक नियमों की सृष्टि होने लगी। अतः कोई भी ग्रंथकार यदि सम्पूर्ण (कृत्स्न) व्याकरण को लिखने का दावा करे, तो उसे विषय के लघु और गुरु, सूक्ष्म एवं स्थूल दोनों पहलुओं को लेना पड़ेगा। अतः काशकृत्स्न-व्याकरण के गुरुलाघवम् का यही रहस्य प्रतीत होता है। चान्द्र-व्याकरण को लघुता और सम्पूर्णता चान्द्र-व्याकरण के रचयिता ने भी अपने 'शब्दलक्षण' को लघु एवं संपूर्ण . कह कर सम्भवतः इसी अभिप्राय को व्यक्त किया है / यद्यपि पूर्वोल्लिखित मीमांसकजी का अनुमान भी पूर्णतया युक्तियुक्त है, परन्तु शिवसूत्र, वर्णसूत्र, धातुपाठ तथा उणादि के द्वारा यदि चन्द्रगोमि ने व्याकरण के लाघव को साधा है, तो शुद्ध व्याकरण के छः अध्यायों में उसके गौरव का भी निर्वाह हुआ है। इस दष्टि से पाणिनि की अष्टाध्यायी में भी किसी सीमा तक 'गुरुलाघवम्' का समावेश है, परन्तु उसमें जिन नई संज्ञाओं और पारिभाषिक शब्दों का प्रवेश हुआ है और जिस नई वैज्ञानिक पद्धति को अपनाया गया है उसके व्याख्यास्वरूप निर्मित विशाल व्याकरण-साहित्य ने उक्त 'लघु' पक्ष को गौण ही नहीं, विस्मृत ही कर दिया। अष्टाध्यायी के 'गुरु' पक्ष में प्रविष्ट उक्त वैज्ञानिकता ने जहाँ उसे यथार्थतः पाणिनेय (पाणिसाध्य अथवा कृत्रिम) बना दिया, वहाँ अपने 'लघु' पक्ष को पाणिनेय से विपरीत 'अनुमेय' बनाकर वैयाकरण दर्शन की गोद 1. दृष्ट्वा रूपे सश्यावृते व्याकरोत् प्रजापतिः। 2. ऋ० वं०-१, 164 / 3. गो. ब्रा०-१, 24 /