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________________ तरिक व्यक्तित्व का महत्तर चमत्कार है। इस आभ्यंतरिक वाक्-व्याकृति से बाह्य व्याकृति तक की मीमांसा हमें सर्वप्रथम ऋग्वेद में प्राप्त होती है, जहाँ व्याकृति विविध अवस्थाओं की दृष्टि से वाक् को कद्रीची, पराची, सध्रीची एवं विषूची संज्ञा' दी गई हैं और एक सुन्दर रूप द्वारा उसे एकपदी से नवपदी तथा एकाक्षरा से सहस्राक्षरा-रूप में व्याकृत होता हुआ दिखाया गया है / उपनिषदों पोर ब्राह्मणों में इसी के संयोग से अवर्ण आत्मा बहुवर्ण' अथवा 'सर्व' रूप में वाङमय होने वाला है। सर्व और सर्वज्ञ आत्मा का उक्त बहुवर्ण अथवा सर्वरूप वाङमय और व्याकृत होते हुए भी 'अनिरुक्त' और अक्षय्य' होता है। इस वाङमय-रूप का वाचक "सर्वम्' नपुंसकलिंगी है, जबकि इसमें व्याप्त आत्मा का प्रवाङमय-रूप 'सर्वः पुंलिंगी है और सर्वज्योति परमयज्ञ कहलाता है। इसी सर्वः सर्वज्योति को अन्यत्र सर्वजित' की संज्ञा दी गई है और इसी को संभवतः चन्द्रगोमि ने सर्वज्ञ सिद्ध तथा उक्त सर्व को सर्वीयं गुरुं कह कर नमस्कार किया है सिद्धं प्रणम्य सर्वज्ञ सर्वीयं जगतो गुरुम् / इस प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्वोक्त पूर्वपाणिनीयम् में भी 'सिद्ध" और 'सर्व'' नाम से शब्द को पृथक्-पृथक् दो रूपों में देखा है। जब चन्द्रगोमि ने 1. ऋ० वे० 1, 164, 17 इत्यादि तु० क० वै० द०, पृष्ठ 51-68 / 2. ऋ० वे० 1, 164, 36-41 / 3. एकोऽवर्णः बहुधा शक्तियोगात् (श्वे. उ० 4, 1) / 4. तत्सर्व आत्मा वाचमप्येति वाङ्मयो भवति कौ० ब्रा०२, 7 तु० क० श० ब्रा० 8, 7, 5. सर्व वा अनिरुक्तम् (श० ब्रा० 1, 3, 5, 10, 1, 4, 1, 21, 2, 2, 1, 3, 7, 2, 2, 14, 10, 1, 3, 11, 12, 4, 2, 1) / 6. सर्व वाऽअक्षय्यम् (श० ब्रा० 1, 6, 1, 16, 11, 1, 2, 12) / 7. श० ब्रा० (6, 1, 3, 18, 6, 1, 3, 11) / 8. तां० ब्रा० (16, 6, 1) / 6. वही (16, 6, 2) / 10. वही (16, 7, 2, 22, 8, 4) / 11. सर्वो धर्मः......सिद्धः / 12. सर्वः शब्दः नत्यः /
SR No.004292
Book TitleChandravyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1889
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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