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________________ [ 4 ] है। यह वाक् उक्त 'परा' रूप में अव्यक्ता है और पराची भी कहलाती है; यही उक्त अद्वैतधर्मस्वरूप शब्द है जो व्याकृत होकर क्रमशः अर्थमूलक क्रिया, काममूलक इच्छा तथा प्रपवर्गमूलक ज्ञान-शक्ति के रूप में एक से अनेक होता है; यही अव्याकृता पराची वाक् का इन्द्र के द्वारा व्याकृता किया जाना कहलाता है / इंद्र की यह व्याकृता वाक् केवल उक्त तीन रूपों में ही नहीं, अपितु अनेक रूपों में व्याकृत होकर विविध इंद्रिय-शक्तियों के रूप में प्रकट होती है / अव्याकृता पराची वाक् (शब्द) जब व्याकृता-रूप ग्रहण करना प्रारम्भ करती है तब अर्थबीजा क्रिया (विविधीकरण को क्रिया) चल पड़ती है। अतः इसके प्रथम रूप में शब्द (परा) और अर्थ (क्रिया) का सम्बन्ध 'सिद्ध होता है, परन्तु दूसरे रूप में अर्थ (क्रिया) के साथ काम (इच्छाशक्ति) का संयोग विशेष होने से दोनों का सम्बन्ध 'साध्य' हो जाता है / शब्दार्थ के सिद्ध सम्बन्ध का ज्ञान हमें बाह्यतः प्रकट नहीं, अपितु आभ्यंतरिक छादन में अप्रकट रूप से होता है ; 'ज्ञानं छन्दसि' कहने का यही अभिप्राय है और 'छन्द' शब्द की विचित्र व्युत्पत्ति' इसी तथ्य का समर्थन करने के लिए बनी है। शब्दार्थ के साध्य सम्बन्ध का ज्ञान हमें बाह्यतः प्रकट रूप में होता है और इस ज्ञान का आधार सारी बाह्य शब्द-समष्टि (सर्वः शब्दः) तथा उसकी सारी अर्थ-समष्टि (सर्वः शब्दार्थः) है। शब्दार्थ का सिद्ध संबन्ध 'नित्य' है और 'तंत्र' रूप है, परन्तु साध्य सम्बन्ध - मनसहित दशेन्द्रियों की भाषाओं में 'एकादशी अनित्य' बन कर नानारूप में प्रकट होता है / प्रथम अवस्था में 'छान्दस' सम्बन्ध है, दूसरी में 'लौकिक' जिसमें विविधीकरण विशेष रूप से होता है / छान्दस सम्बन्ध का ज्ञान 'पार्ष' (सर्व• मार्षम् ) साक्षात् दर्शन से प्राप्त होता है, और इस अवस्था में प्रात्मा को 'पश्य' तथा उसकी वाक् को 'पश्यन्तो' कहा जाता है। छान्दस के विपरीत एक ओर तो 'लौकिक' शब्दार्थ-सम्बन्ध है जो अनेक वर्षों तथा उनसे विरचित अनेक पदों 1. वैदिकदर्शन पृ० 22-30 / 2. वाग्वै पराची अव्याकृतावदत् / ते देवा इन्द्रमब्रवन्, इमां नो वाचं व्याकुविति...... तमिन्द्रो मध्यतोऽवक्रम्य व्याकरोत् / (तै० सं० 6, 4, 7; मै० सं० 4, 58; का० सं० 27, 3; कपि० सं० 42,3) 4. देखिये-'वैदिक एटिमॉलॉजी' में 'छन्दस्'। 5. लौकिकोऽत्र विशेषेण व्याकरणात्, 19-20 / 6. साक्षात्कृतधर्माणः ऋषयो बभूब, या० नि० 1.1 / 7. वै० द० (2006 वि०) पृ० 37 /
SR No.004292
Book TitleChandravyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1889
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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