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________________ माल्यवान् वक्षस्कार पर नौ कूट है-(1) सिद्धायतनकूट, (2) माल्यवान कूट, (3) उत्तरकुरू कूट, (4) कच्छ कूट, (5) सागरकूट, (6) रजत कूट, (7) शीताकूट, (8) पूर्णभद्रकूट, और (9) हरिस्सह कूट। सागरकूट पर 'सुभोगा' और रजतकूट पर 'भोगमालिनी देवी' रहती हैं। हरिस्सह कूट पर 'हरिस्सह देव' की 500 योजन राजधानी है। यह कूट एक हजार योजन ऊँचा है। शेष 500 योजन ऊँचे कूटों पर कूट सदृश नाम वाले देवों का निवास है। __गंधमादन वक्षस्कार पर सात कूट हैं-(1) सिद्धायतनकूट, (2) गंधमादन कूट, (3) गन्धिलावती कूट,(4) उत्तरकुरूकूट, (5) स्फटिककूट, (6) लोहिताक्षकूट, (7) आनन्दकूट / ये सभी कूट 500 योजन ऊँचे हैं। स्फटिककूट तथा लोहिताक्षकूट पर 'भोगंकरा' एवं 'भोगवती' नामक दो दिक्कुमारिकाएँ निवास करती है। बाकी के कूटों पर तत्सदृश नाम वाले देव निवास करते हैं। उक्त चारों कूटों की आठ दिशाकुमारियाँ नीचे अधोलोक में भवनपति निकाय की देवियाँ कहलाती हैं। इन सभी के दो-दो प्रासाद गजदन्त पर्वत पर भी हैं। ये सभी तीर्थंकरों के जन्म समय संवर्तक वायु से एक योजन तक की भूमि को स्वच्छ करती है तथा प्रसूतिगृह का निर्माण करती हैं। __ नीलवान् वर्षधर पर्वत-महाविदेह की सीमा बाँधने वाला जैसे दक्षिण में निषध पर्वत है, वैसे ही महाविदेह के उत्तर में नीलवान् नामक वर्षधर पर्वत है। इसका संपूर्ण वर्णन निषध पर्वत के समान है। इतना अंतर है कि इसकी जीवा दक्षिण में है, और धनुपृष्ठ भाग उत्तर में है। इसका वर्ण 'नीलम' के समान है। नीलवान् वर्षधर पर्वत के नौ कूट हैं-(1) सिद्धायतनकूट, (2) नीलवंतकूट, (3) पूर्वविदेहकूट, (4) शीताकूट, (5) कीर्तिकूट, (6) नारीकान्ताकूट, (7) अपरविदेहकूट, (8) रम्यककूट, (9) उपदर्शनकूट। ये सब कूट पाँच सौ योजन ऊँचे हैं। इनके अधिष्ठातृ देवों की राजधानियाँ मेरू के उत्तर में है। केसरी द्रह और उससे निर्गत नदियाँ-नीलवंत पर्वत के मध्य में केसरी द्रह' है। उससे दो नदियाँ निकलती हैं-(1) सीता महानदी, (2) नारीकान्ता महानदी। दक्षिण से 'सीता महानदी' निकली है। सीता महानदी दक्षिण तरफ उत्तरकुरू क्षेत्र और यमक-समक पर्वत के मध्य में होकर (1) नीलवान्, (2) उत्तरकुरू क्षेत्र, (3) चन्द्र, (4) ऐरावत एवं (5) माल्यवान्-इन पाँच द्रहों को दो भागों में विभाजित करती हुई आगे बढ़ती है। उसमें 84 हजार नदियाँ मिलती है। उनसे आपूर्ण होकर वह भद्रशाल वन के मध्य में बहती हुई मेरू पर्वत से 2 योजन पहले पूर्व दिशा की तरफ मुड़कर नीचे माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वत को भेदती हुई पूर्व विदेह क्षेत्र को दो भागों में विभाजित करती है। एक-एक चक्रवर्ती विजय की 28-28 हजार नदियाँ उसमें मिलती है। इस प्रकार 28,000 x 16 + 84000 = 5,32,000 नदियों से आपूर्ण वह नीचे विजयद्वार की जगती को विदीर्ण कर पूर्वी लवण समुद्र में मिल जाती है। केसरीद्रह से दूसरी 'नारीकन्ता नदी' उत्तराभिमुख होकर बहती है। वह रम्यक्वास क्षेत्र के मध्य में होकर 56,000 नदियों के साथ पश्चिम लवण समुद्र में जाकर मिलती है। उसका वर्णन पूर्व के सदृश है। इतना अन्तर है-जब गन्धापाति वृत्तवैताढ्य पर्वत एक योजन दूर रह जाता है, तब वह वहाँ से पश्चिम की ओर मुड़ 74 सचित्र जैन गणितानुयोग
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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