________________ (3) पिंगलक निधि-मनुष्य या हाथी-घोड़े आदि के आभूषण उत्पन्न करने वाली। (4) सर्वरत्न निधि-अश्व गज, चक्र, दण्ड आदि चक्रवर्ती के 14 रत्नों की उत्पत्ति में हेतु बनती है। (5) महापद्म निधि-सभी प्रकार के वस्त्र को उत्पन्न करने, उन्हें रंगने, धोने आदि समग्र सज्जा का निष्पादन करने वाली। (6) कालनिधि-विविध प्रकार के बर्तन सौ प्रकार के शिल्पों का ज्ञान तथा भूत-भविष्य के शुभाशुभत्व का ज्ञान कराने वाली। (7) महाकाल निधि-विविध प्रकार के स्वर्ण-रजत-हीरे-मूंगे आदि की खानें उत्पन्न करने की विशेषता युक्त। (8) माणवक निधि-सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र की सामग्री एवं युद्धनीति व राजनीति का ज्ञान कराने वाली। (9) शंख निधि-सब प्रकार की नृत्य विधि, नाटक विधि काव्य एवं वाद्यों को ज्ञान कराने वाली। (चित्र क्रमांक 39) ये नौ ही निधियाँ समुद्र और गंगा महानदी के संगम स्थान पर अर्थात् गंगा के पश्चिमी तट पर रहती हैं। जब चक्रवर्ती नौ निधिरत्नों को उद्दिष्ट कर 37. चक्रवर्ती की नव निधियाँ इन्हें प्राप्त करने के लिये तेला तप करते हैं, तब इनके अधिष्ठातादेव चक्रवर्ती के समक्ष 2. पांडुक निधि नौ निधियों सहित उपस्थित होते हैं। प्रत्येक 3 पिंगल निधि निधि 8 योजन ऊँचे, 9 योजन चौड़े और 12 योजन लम्बे मंजूषाकार आठ-आठ चक्रों के ऊपर अवस्थित होती है। ये मंजूषाएँ 4. सर्वरल निधि स्वर्णजटित होती हैं, इनके कपाट वैडूर्यमणिमय, चन्द्र सूर्य, चक्र के चिह्नों से युक्त होते हैं। विविध प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण इन मंजूषाओं में इष्ट अर्थ की सिद्धि करने वाली पुस्तकें होती हैं, जिन्हें पढ़कर उन्हें प्राप्त करने की विधि का ज्ञान होता है। अपने-अपने नाम सदृश एक पल्योपम की स्थिति वाले देवों द्वारा ये अधिष्ठित होती हैं। ये सब निधियाँ अनुपम व अनमोल होती हैं। चक्रवर्ती के साथ-साथ धरती के नीचे चलती हुई राजधानी के बाहर स्थित रहती है। निधियों का मुख सुरंग के जैसा होता है, चित्र क्र.39 सचित्र जैन गणितानुयोग 11. निसर्प निधि मजूषा 6 काल निधि 5. महापद्म निधि 7. महाकाल निधि माणव निधि शंख निधि 48