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________________ आयेंगे। अर्थात् औदारिक वर्गणा के पुद्गलों का ग्रहण पूर्ण होने के बाद ही वैक्रिय वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके छोड़े इसी प्रकार आगे भी क्रम से करे तब वह सूक्ष्म पुद्गल परावर्तन कहा जाता है। (2) क्षेत्र पुद्गल परावर्त्तन-क्षेत्र अर्थात् लोकाकाश के प्रदेशों की श्रेणी। कोई जीव चौदह राजू लोक के सभी आकाश प्रदेशों को क्रम या उत्क्रम कैसे भी मृत्युकाल से स्पर्श करता है, उसे बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्त्तन कहते हैं। यद्यपि मरण काल में जीव असंख्य आकाश प्रदेशों का स्पर्श करता है तथापि यहाँ उनमें से एक बार में एक ही आकाश प्रदेश को निश्चित करके गिनती में लिया जाता है, सभी को नहीं। सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्त्तन में जीव प्रथम जिस आकाश प्रदेश में मृत्यु प्राप्त हुआ जब दूसरी बार उसके पास वाले आकाश प्रदेश पर मृत्यु प्राप्त करता है, उसी को ग्रहण किया जाता है। (3) काल परावर्त्तन-कोई भी एक जीव उत्सर्पिणी अथवा अवसर्पिणी के प्रथम समय में मृत्यु प्राप्त हुआ वही जीव दूसरी बार किसी ओर समय में मृत्यु प्राप्त हुआ और तीसरी बार किसी ओर समय। इस तरह क्रम या उत्क्रम से जब वह एक कालचक्र के सभी समय को मृत्यु द्वारा स्पर्श करता है उसे 'बादर काल पुद्गल परावर्त्तन' कहते हैं। जब जीव उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी के सभी समयों को क्रम से मृत्यु प्राप्त करके स्पर्श करता है, तो उसे सूक्ष्मकाल पुद्गल परावर्तन कहते हैं। _(4) भाव पुद्गल परावर्त्तन-संयम के असंख्यात स्थानकों से तीव्र, मंद आदि रसबंध के अध्यवसाय स्थान असंख्यात गुणा (असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण) हैं। इसमें प्रत्येक अध्यवसाय स्थानक में मृत्यु प्राप्त करके जब रसबंध के सभी अध्यवसायों को क्रम या उत्क्रम से स्पर्श करता है उसे बादर भाव पुद्गल परावर्त्तन कहते हैं तथा जीव प्रथम सर्व जघन्य अध्यवसाय स्थान में मृत्यु को प्राप्त होकर कालांतर में उससे अधिक कषायांश वाले दूसरे अध्यवसाय स्थान में मरता है, इस तरह कितने ही कालांतर के बाद उससे अधिक कषायांश वाले तीसरे अध्यवसाय में मरता हुआ रसबंध के सभी अध्यवसाय स्थानकों को क्रमशः मृत्यु द्वारा स्पर्श करता है, तब सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्तन होता है। ये परावर्तन अनंत उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण समझने चाहिये। इसमें भी बादर पुद्गल परावर्तन की अपेक्षा सूक्ष्म पुद्गल परावर्तन की उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी अनंत गुणी अधिक है। || समयावलि य मुहुत्ता, दिवसमहोरत्त-पक्ख-मासा य।। | संवच्छर-जुग-पलिया-सागर-ओसप्पि-परियट्टा॥ इस प्रकार काल माप में समय सबसे सूक्ष्म है, उससे आवालिका, मुहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास वर्ष, युग, पल्योपम, सागरोपम, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी एवं पुद्गल परावर्तन एक-दूसरे की अपेक्षा से बड़े हैं। समय आवलिका में आवलिका आनप्राण में, आनप्राण स्तोक में, स्तोक लव में, लव मुहूर्त में, इसी प्रकार पल्योपम सागरोपम में, सागरोपम उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी में और कालचक्र पुद्गल परावर्तन में समाविष्ट हो जाते हैं। पुद्गल परावर्तन भी अतीत-अनागत में और अतीत-अनागत काल सर्व अद्धाकाल में समाविष्ट है। सर्व अद्धाकाल से बड़ा कोई काल नहीं। वह तो आत्मभाव में ही समवतरित होता है। सचित्र जैन गणितानुयोग 171
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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