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________________ उत्तर पुष्पावकीर्ण पुष्पावकीर्ण पश्चिम इन्द्रक त्रिकोण चौरस त्रिकोफी पुष्पावकीर्ण पुष्पावकीर्ण आपस में टकराते हैं तो उनमें से छह राग और छत्तीस रागनियों की मधुर ध्वनि निकलती है। वहाँ सोने और चाँदी की रेत बिछी है। अति सुंदर और सदैव नवयौवन से ललित, दिव्य तेज वाले , समचतुरस्र संस्थान के धारक, अति उत्तम मणिरत्नों की वस्तु गोल के धारक, दिव्य अलंकारों से सुशोभित देव ओर देवियाँ इच्छित क्रीड़ा करते हुए और मनोरम भोग भोगते हुए विचरण करते हैं। देव-देवियों का परस्पर दिव्य प्रेम रहता है। पाँचों इन्द्रियों के 23 विषय चित्र क्र.97 उन्हें पूर्व पुण्य से प्राप्त होते हैं। ये देवता नाटक, वन विहार, जलक्रीड़ा आदि में अपना समय व्यतीत करते हैं। देवताओं को कहीं भी जाना हो तो वे उत्तरवैक्रिय रूप बनाकर जाते हैं। मूल देह से वे विमान में ही रहते हैं। (चित्र क्रमांक 98) देवों का उत्पाद-देव मनुष्य की तरह नौ महीने गर्भ में रहकर जन्म नहीं लेते। इनका जन्म उत्पादशय्या पर होता है। ऐसी उत्पाद शय्याएँ संख्यात योजन वाले देव स्थानों में संख्यात हैं और असंख्यात योजन वाले देव स्थानों में असंख्यात हैं। उन शय्याओं पर देवदुष्य वस्त्र ढंका रहता है। धर्मात्मा और पुण्यात्मा जीव जब इसमें उत्पन्न होते हैं तो वह अंगारों पर डाली हुई रोटी के समान फूल जाती है। पास में रहे हुए देव जन्मोत्सव की खुशी में घंटनाद करते हैं तो उसके अधीनस्थ सभी विमानों में घंटे का नाद हो जाता है, उसे सुनकर सभी देव-देवियाँ उत्पाद शय्या के पास एकत्रित हो जाते हैं और जय-जयकार की ध्वनि से सारा विमान गूंज उठता है। अन्तर्मुहूर्त / (48 मिनट) के बाद उत्पन्न हुआ देव पाँचों पर्याप्तियों से पूर्ण होकर 18 वर्ष के तरुणवय वाले के समान शरीर धारण कर मानो निद्रा से उठा हो; इस प्रकार उठकर बैठ जाता है। तब उसके समीप में खड़े हुए देव उससे प्रश्न | करते हैं कि "आपने क्या करनी की थी, जिससे हमारे नाथ बने?" दक्षिण सचित्र जैन गणितानुयोग 147
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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