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________________ उनके विकार युक्त मन का अवधिज्ञान से अवलोकन करते ही तृप्त हो जाते हैं। बारहवें देवलोक के ऊपर देवों को भोग की इच्छा ही नहीं होती। नवग्रैवेयक-ग्यारहवें-बारहवें देवलोक की सीमा से 1 राजू व समभूमि से 6 राजू ऊपर साढ़े 8 राजू घनाकार विस्तार में एक-दूसरे के ऊपर आकाश के आधार से नवग्रैवयेक देवलोक हैं। वस्तुतः पुरुषाकार 14 राजू लोक की ग्रीवा-गर्दन के स्थान पर होने से इन्हें 'ग्रैवेयक' कहा गया है। इनके तीन त्रिक में 9 प्रतर हैं। पहले त्रिक (तीन देवलोक का समूह) में 1. भद्र, 2. सुभद्र और 3. सुजात नामक तीन ग्रैवेयक हैं। इन तीनों में 111 विमान पूर्णचन्द्र के आकार के हैं। दूसरी त्रिक में 4. सुमानस, 5. सुदर्शन और 6. प्रियदर्शन नामक तीन ग्रैवेयक हैं। इन तीनों में 107 विमान हैं। तीसरे त्रिक में 7. अमोह, 8. सुप्रतिभद्र और 9. यशोधर नामक तीन ग्रैवेयक हैं, इनमें 100 विमान हैं। ये कुल 318 ही विमान 1,000 योजन ऊँचे और 2,200 योजन की अंगनाई वाले हैं। इनका शरीर दो हाथ की अवगाहना वाला है और आयुष्य क्रमश: 23 सागरोपम से एक-एक की वृद्धि करते हुए अंतिम ग्रैवेयक देव की 31 सागरोपम है। इतने ही हजार वर्षों में उन्हें आहार की इच्छा होती है। इन देवलोकों तक अभव्य जीव भी उत्पन्न हो सकते हैं। ऐसे अभव्य जीव देवगति से च्यवकर तो मनुष्य गति में ही आते हैं, किन्तु बाद में स्वकर्मानुसार चारों गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। पाँच अनुत्तर विमान-ग्रैवेयक की सीमा से 1 राजू तथा समभूमि से 7 राजू ऊपर और 6-1/2 राजू घनाकार विस्तार में चारों दिशाओं में 4 अनुत्तर विमान आकाश के ही आधार पर स्थित हैं। ये 1,100 योजन ऊँचे और 2,100 योजन की अंगनाई वाले तथा असंख्यात योजन लम्बे-चौड़े त्रिकोणाकार हैं। इन चारों विमानों के मध्य में 1,00,000 योजन विस्तार वाला पूर्ण चन्द्राकार सर्वार्थसिद्ध विमान है। इन पाँचों विमानों के नाम इस प्रकार हैं-1. पूर्व दिशा में 'विजय' विमान, 3. दक्षिण में वैजयंत', 3. पश्चिम में 'जयंत', 4. उत्तर में 'अपराजित', 5. मध्य में सर्वार्थसिद्ध' विमान है। ये पाँचों विमान सब विमानों में उत्कृष्ट है। इनके 'उत्तर' में अर्थात् बाद में, 'अन्' अर्थात् कोई विमान नहीं है। अतः सबसे उत्कृष्ट व सबसे ऊपर होने के कारण ये 'अनुत्तर विमान' कहलाते हैं। इन पाँचों विमानों में रहने वाले देवों का शरीर 1 हाथ प्रमाण है। चार विमानों के देवों की जघन्य आयु 31 सागरोपम और उत्कृष्ट 33 सागरोपम की है। सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों की आयु 33 सागरोपम है, इसमें जघन्य उत्कृष्ट का भेद नहीं है, सब देवों की आयु बराबर है। . नवग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर विमान में 'कल्पातीत देव' होते हैं, ये सभी देव स्वामी सेवक के व्यवहार से रहित स्वयं इन्द्र के समान है। अतः इन्हें अहमिन्द्र कहा गया है। ये अपने विमान से कभी बाहर नहीं निकलते, अत: न तो तीर्थंकरों के कल्याणक महोत्सव में जाते हैं और न ही भगवान के समवशरण में / वे सदैव आत्मानंद में मग्न रहते हैं। इन्हें जब किसी प्रकार का संशय उत्पन्न होता है तब वे शय्या से नीचे उतरकर तीर्थंकर भगवान को नमस्कार करके अपनी मनोवर्गणा से भगवान को प्रश्न पूछते हैं। भगवान उस प्रश्न के उत्तर को मनोमय पुद्गलों में परिणत करते हैं, देव अपने विशिष्ट अवधिज्ञान से उन पुद्गलों को ग्रहण करके समाधान प्राप्त कर लेते हैं। सचित्र जैन गणितानुयोग 145
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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