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________________ समुद्र 20. 21. 8. ' मध्यलोकवर्ती द्वीप-समुद्र की स्थापना क्रम द्वीप क्रम द्वीप समुद्र 1. जंबूद्वीप - लवण समुद्र | 17. | रूचकवरावभास द्वीप - रूचकवरावभास समुद्र 2. धातकीखंड द्वीप - कालोदधि समुद्र |18. | शंखद्वीप - शंख समुद्र | पुष्करवर द्वीप - पुष्करवर समुद्र, | 19. | शंखवर द्वीप -शंखवर समुद्र | वारूणीवर द्वीप - वारूणीवर समुद्र | शंखरावभास द्वीप - शंखरावभास समुद्र 5. क्षीरद्वीप - क्षीरसमुद्र अरूणोपपात द्वीप -अरूणोपपात समुद्र 6. घृत द्वीप - घृत समुद्र | 22. | अरूणोपपातवर द्वीप - अरूणोपपातवरावभास समुद्र 7. | इक्षुवरद्वीप - इक्षुवर समुद्र | 23. | अरूणोपपातवरावभास द्वीप- अरूणोपपातवरावभास समुद्र नंदीश्वर द्वीप नंदीश्वर समुद्र | 24. भुजंग द्वीप - भुजंग समुद्र 9. | अरूण द्वीप - अरूण समुद्र | 25. | भुजंगवर द्वीप - भुजंगवर समुद्र | 10. | अरूणवर द्वीप - अरूणवर समुद्र 26. | भुजंगवरावभास द्वीप - भुजंगवरावभास समुद्र.. | 11. | अरूणवरावभासद्वीप- अरूणवरावभास समुद्र | 27. | कुश द्वीप -कुश समुद्र 12. | कुंडल द्वीप - कुंडल समुद्र | 28. | कुशवर द्वीप - कुशवर समुद्र | 13. | कुंडलवरद्वीप - कुंडलवर समुद्र |29. | कुशवरावभास द्वीप - कुशवरावभास समुद्र | 14. | कुंडलवरावभास द्वीप - कुंडलवरावभास समुद्र 30. | क्रौंच द्वीप - क्रौंच समुद्र | 15. | रूचक द्वीप - रूचक समुद्र | 31. | क्रौंचवर द्वीप - क्रौंचवर समुद्र | 16. | रूचकवर द्वीप - रूचकवर समुद्र | 32. | क्रौंचवरावभास द्वीप - क्रौंचवरावभास समुद्र / O यहाँ से प्रत्येक शुभ वस्तु के नाम वाले और सभी त्रिप्रत्यावतारी अर्थात् द्वीप के नाम तथा उसके आगे 'वर' और 'वरावभास' जोड़कर बनने वाले असंख्यात द्वीप व असंख्यात समुद्र हैं। इन असंख्य द्वीप-समुद्र में सबसे अंतिम त्रिप्रत्यवतार 'सूर्य' नाम का द्वीप व समुद्र है, जैसे-(1) सूर्यद्वीप, सूर्यसमुद्र, (2) सूर्यवरद्वीप, सूर्यवर समुद्र,(3) सूर्यवरावभासद्वीप, सूर्यवरावभास समुद्र। अंतिम प्रत्येक नाम वाले द्वीप समुद्र इस प्रकार हैं-(1) देवद्वीप-देव समुद्र,(2) नागद्वीप-नाग समुद्र, (3) यक्षद्वीप-यक्ष समुद्र, (4) भूतद्वीप-भूत समुद्र, (5) स्वयंभूरमण द्वीप और अंत में पूर्व वर्णित असंख्य द्वीप समुद्र समा जाय इतना विस्तृत आधे राजू के घेरे में स्वयंभूरमण समुद्र है। अर्थात् स्वयंभूरमण समुद्र के पूर्व दिशा की वेदिका से पश्चिम दिशा की वेदिका तक का अंतर एक राजू प्रमाण है। इस समुद्र की जगती से 12 योजन दूर चारों ओर अलोक है। (चित्र क्रमांक 63) अरूणोदक समुद्र का विकार-तमस्काय तमस्काय का अर्थ है-अंधकार वाले पुद्गलों का समूह। गाढ़ अंधकार की राशि को तमस्काय कहते हैं। यह बादर पृथ्वीकाय या अग्निकाय रूप नहीं हैं, क्योंकि पृथ्वीकाय तो रत्नप्रभादि आठों पृथ्वियों, पर्वतों और विमानों में ही होता है तथा कोई पृथ्वी (रत्न आदि) प्रकाशक होती है, कोई अप्रकाशक / अग्निकाय केवल मनुष्यलोक में ही है। किन्तु अप्काय सम्पूर्ण अप्रकाशक ही होता है। अतः अप्काय व तमस्काय का एक 100 सचित्र जैन गणितानुयोग SANA
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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