________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 77 महाजनो येन गतः स पन्थाः" इति प्रलापमात्राश्रयणात् / तथा प्रलापिनां स्वोक्ताप्रतिष्ठानात् तत्प्रतिष्ठाने वा तथा वचनविरोधादित्युक्तप्रायं // सम्प्रति मतिज्ञानविपर्ययसहजमावेदयति बह्वाद्यवग्रहाद्यष्ट चत्वारिंशत्सु वित्तिषु। कुतश्चिन्मतिभेदेषु सहजः स्याद्विपर्ययः // 20 // स्मृतावननुभूतार्थे स्मृतिसाधर्म्यसाधनः। संज्ञायामेकताज्ञानं सादृश्यः श्रोत्रदर्शितः॥२१॥ तथैकत्वेऽपि सादृश्यविज्ञानं कस्यचिद्भवेत् / स विसंवादत: सिद्धचिंतायां लिङ्गलिङ्गिनो: 22 / क्योंकि, सबको अभीष्ट उन पृथ्वी आदि दृश्य तत्त्वों को ही मानना परलोक, आत्मा, पुण्य, पाप आदि को नहीं मानना, इस सिद्धान्त की प्रतिष्ठा तर्क, शास्त्र, बृहस्पति, लौकिक धर्म, लोक प्रसिद्ध व्याप्ति के मान लेने पर ही पुष्ट होती है। तथा तर्क निषेध, शास्त्रनिषेध, आप्तमुनिनिषेध और धर्म की प्रच्छन्नता करने पर अपने वचन का विरोध हो जायेगा, इस बात को हम प्राय: अनेक बार कह चुके हैं। - श्रुत अज्ञान के बल से इच्छापूर्वक होने वाले विपर्यय, संशय और अनध्यवसाय को उदाहरणपूर्वक दिखाकर अब वर्तमान में मतिज्ञान के परोपदेश के बिना ही स्वतः होने वाले सहज विपर्यय का आचार्य महाराज कथन करते हैं। बहु, अबहु आदि बारह विषयभेदों को जानने वाले अवग्रह, ईहा,आदि चार ज्ञानों की अपेक्षा हुई अड़तालीस मतिज्ञान की भेदस्वरूप बुद्धियों में किसी भी कारण से निसर्गजन्य विपर्ययज्ञान होता है। जो कुश्रुत कुमति ज्ञान परोपदेश बिना होता है वह निसर्गज कहलाता है॥२०॥ . स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता और स्वार्थानुमान भी मतिज्ञान के प्रकार बतलाये हैं। अत:, स्मृति आदि का भी सहज विपर्यय ज्ञान इस प्रकार समझ लेना कि पूर्वकाल में अनुभव किये जा चुके अर्थ में स्मरण किये गये पदार्थ के समानधर्मपने को कारण मानकर स्मृति हो जाना, स्मरण ज्ञान का सहज विपर्यय है, जैसे कि अनुभव किये गये देवदत्त के समान धर्म वाले होने के कारण जिनदत्त में देवदत्त की स्मृति कर बैठना सहज कुस्मृतिज्ञान है। - और संज्ञा स्वरूप प्रत्यभिज्ञान में स्थूल दृष्टि वाले पुरुषों को सदृशता होने पर एकता का ज्ञान हो जाना प्रत्यभिज्ञान का सहजविपर्यय है, जैसे कि समान आकृति वाले दो भाइयों में से इन्द्रदत्त के सदृश जिनचन्द्र में “यह वही इन्द्रदत्त है" - इस प्रकार एकत्वप्रत्यभिज्ञान हो जाता है, यह एकत्व प्रत्यभिज्ञान का सहजविपर्यय है।।२१।। अर्थात् ये स्मृतिज्ञानाभास, प्रत्यभिज्ञानाभास कहलाते हैं। किसी मिथ्याज्ञानी जीव के एकत्व में सदृशपने को जानने वाला प्रत्यभिज्ञान हो जाए तो वह सादृश्यप्रत्यभिज्ञान का विपर्यय है। जैसे कि उसी इन्द्रदत्त को इन्द्रदत्त के सदृश जिनचन्द्र समझ लेना। इस प्रकार भ्रान्तिज्ञान हो जाने के अनेक कारण हैं। उनके द्वारा उक्त विपर्यय ज्ञान उत्पन्न होता है। तथा, साधन और साध्य के सम्बन्ध में बाधासहितपन या निष्फल प्रवृत्ति का जनकपनरूप विसंवाद हो जाने से तर्कज्ञान